एक मार्मिक सफरनामा....

 



 विदाई बेटी की ..........

✍प्रो.बीना शर्मा


जीवन में कितनी- कितनी बार हम कितने -कितने स्थानो से विदा होते हैं ,एक नये माहौल में रचते बसते हैं ,पुराना भूल जाते हैं और नया स्वीकार लेते हैं. इसी में सुख है और इसे अनुभूत भी किया जाना चाहिए. पर लड़कियों का नैहर विवाह के बाद ऐसा छूटता है कि वह बस यादो में रह जाता है मेरो नैहर छूटो जाय. भले ही निरी गरीबी हो पर अपना घर अपना घर होता है. वहाँ के हम राजा होते हैं. फ़िर चल देते हैं एक नये घर में, जडे तो यहीं रह जाती है ,पौधे जड़ सहित उखाड़ जाकर रोपे जा सकते हैं लेकिन पेड़ तो अपनी जड़ जमा चुका होता है. सो मन बार बार लौटता है लेकिन ये लौटना भी कितना अजीब है.सब बदल जाता है ,एक ही क्षण में, आप पराई हो जाती हैं, किसी की अमानत मान पाली गई थी, जिसकी थी उसे देने का समय आगया तो उचित पात्र को तुम्हें थमा दिया गया .अब जाना तो है ही .एक बार विदा होकर फ़िर कितनी भी बार आओ, पराई ही होती हो .लड़की की जात जो हो. लड़के जीवन भर एक ही जगह रहते हैं सो लचीले नहीं हो पाते, वे कहीं नही जाते, बस घर में लेकर आते हैं कभी बधुए कभी धन धान्य दौलत और भी न जाने क्या क्या. विदा होते घर का तुम्हारा कोना भर जाता है फ़िर वहाँ मेहमान बनकर जाना होता है मेहमान के संग. कल तक जिस माँ की सहायता करते थे ,जिन्हें कुछ देर आराम देने का सपना पाल बैठे थे ,आज वही बुजुर्ग बूढी माँ हमारे लिए हाथों में पानी का गिलास लिए खडी होती है ,कभी व्यन्जन परोसती है तो कभी विदा के लिए बक्सा टटोलती है .आज उसकी लाडली पराई जो हो गई, अपने साथी के साथ आई है उसे भरपूर देना है .बेटी घर की सब स्थिति जानती है माँ का हाथ रोकती है पर माँ लोकाचार जानती है,उसकी माँ भी तो यही करती थी, बेटी दूसरे घर की हुई दामाद के साथ आई है ऐसे कैसे उसे खाली हाथ विदा कर दें. यानी एक बार दूसरे घर के हुए तो जितनी बार वहां पहुंचती हो ,हर बार स्वागत के साथ लिया तो जाता है पर विदा करने के लिए .कभी महीना दो महीना रह जाओ तो मोहल्ले वालो और रिश्तेदारी की आंखें  ढेर सवाल करती हैं जिनका भाव तो एक ही होता है सब ठीक है न, ससुराल में अच्छे से निभ रही है, पति ने  छोड़ तो नहीं दिया आदि आदि. यानी अब वह घर आपका रहा ही नहीं, जब कभी आ जा सकती हो पर लौटना तो अपने ठिकाने पर ही है।

 जैसे उड़ जहाज को पंछी फ़िर जहाज पे आबे...

 जहाज ही तो बदल गया, बीस तीस बरस तक जिस घर को अपना कहते उसकी साल संभाल करते नहीं अघाते थे ,वह सब तो विवाह होते ही,सात फ़ेरे होते ही ,पिता के कन्या दान करते ही ,विदा होते ही छूट गया, अब समझ आती है कि लड़की की विदा होते परिवारी जन इतने व्याकुल क्यों होते हैं, ढोलक की थाप के साथ जब वरनी गाई जाती हैं तो सबकी आंखे पनीली क्यों हो जाती हैं।

"हम तो चले परदेश कि मेरा यहाँ कोई नहीं...

" ये गलियां ये चोबारा यहाँ आना न दोबारा...

"बाबुल की दुआए लेती जा....


" सज- धज के दुलहन ससुराल चली....

 जैसे रिकार्ड क्यों बजा दिये जाते हैं, माहौल इतना भारी हो जाता है कि सभी उपस्थित अपनी भीगी कोरो को अंगुली या रूमाल से पोंछते नजर आते हैं। 

गांव देहात में तो आज भी बेटी की विदाई  ह्रदयविदारक होती है ।

"काहे को ब्याही विदेश री सुन बाबुल मोरे....

मैया के आँगन की चिडकुली,

 झट से अजनबी के साथ गाँठ बांध डोली में बैठा विदा कर दी जाती है. शहर चुपा गये हैं, विदा होती बेटियाँ दिल में कितना भी सुबुकती हो लेकिन ऊपर से तो सामान्य व्यवहार ही करती हैं .वे समझदार हो गई हैं.जान गई हैं कितना भी रो लो, लिपट लिपटा लो, माँ का आंचल कस के पकड़े रहो, बाबुल के मनावने करते रहो, भैया को लाख कसम दे लो ,ससुराल तो जाना ही पड़ता है, सब मोह माया ममता भुला कर नये माहौल में सेट होना पड़ता है, जिन्हें कभी देखा नहीं, जिन्हें जानते तक नहीं, वे सगे वाले हो जाते हैं और जिस घर में जन्म लिया जिस आंगन में बचपन बीता, जिन सहेलियो के संग अठखेलिया की, जिस माँ के आंचल ने भरी दुपहरी छाँव दी, जिस पिता ने अपनी लाडली की सारी इच्छाए पूरी की, जो पापा की परी और मैयो की प्यारी गुड़िया थी, जिसका चेहरा जरा मुरझा जाए, माथे पे शिकन पड़ जाए, अम्मा बाबा का कलेजा मुंह को आ जाता था, जो पढ़ने जाती थी तो माँ मनावने कर आगे पीछे डोलती सी मुंह में कौर देती थी, कभी डाँट दिया ,दो थाप मार दी तो घंटो आंचल में छिपाये रहती थी, बार बार पुचकारती थी, वही लाडो आज पराई हो गयी है। अधिकार क्षेत्र बदल गया है, मकान की रजिस्ट्री किसी दूसरे के नाम हो गई है. उसके दुख कष्ट समझ तो आते हैं, नौ महीने पेट में जो रखा है पर अब पराई हो गई, ससुराल की हो गई तो कैसे उसके घर परिवार में दखल दे. ये भी कन्या का भाग होता है कि उसे दूसरे घर में भी सम्वेदनशीलता मिले,  उसको स्वयम कहना न पड़े ,सामने वाला उसका चेहरा देख समझ जाए कि उसे क्या चाहिए, चेहरा उतरा हुआ क्यों है, आंख क्यों सूजी है, अनमनी क्यों है, कहीं ये चेहरा धूप ताप भूख प्यास से तो नहीं कुम्हला गया, नई-नई आयी है न, उस पर थोडा ध्यान देना जरूरी है, एक भरा पूरा परिवार छोड़ कर आई है, उसे अपनो की याद आती होगी, उसका मन समझो, तुम अपने परिवारी जनो के बीच हो, सर्वथा सर्व भावेन सुरक्षित हो, उसकी सोचो जो कई कई सपने लेकर तुम्हारे दरवाजे आई है, एक घर की देहरी पूज दूसरे घर के घर आंगन की शोभा बनी है. कहीं से विदा हो कर आई है, बहुत कुछ छूटा है उसका, उसे बहुत कुछ दोगे तभी भर पायेगी. विदा उसकी हुई है ,तुम तो लेकर आये हो और वह छोड़ कर आई है. दोनों वाक्यो का अन्तर समझो।

जितना तुम्हारे घर परिवार जो अब उसका भी हो गया है को सम्भालती सहेजती है, सबसे रिश्ते जोडती है,फ़िर भी अपनी नहीं हो पाती. कुछ दूरी रह ही जाती है. बिटिया, तुम लड़की जात हो, विदा तुम्हें ही होना है .वे लड़के हैं ,उनका परिवार तुम्हारा अपना होता है पर तुम्हारे परिवार में वे सदैव मेहमान होते हैं। दस दिन रुक रुका गये तो घर जमाई का ठप्पा लग जाता है, लोक लाज का भय लगा रहता है. तुम विदा होती हो तो किसी बडी हवेली में समा जाती हो. वे मूल घर से कभी विदा नहीं होते विदा होती हैं बेटियाँ क्योंकि उन्हें कहीं समाना होता है, जडे जमानी होती है, दूसरी जमीन पर खुद को रोपना होता है, उगाना होता है, जमीन तैयार करनी होती है, परायो को अपनाना होता है ,ये बिटिया ही कर पाती हैं, हिम्मत वाली होती है.जहाँ जाती है चूल्हे सुलगाना जानती है, सूखे अन्न को स्वादिष्ट भोजन में बदलने का जादू जानती हैं। विदा होती बेटियाँ सबकी अन्नपूर्ना होती हैं।


 ✍प्रो.बीना शर्मा 

निदेशक-केन्द्रीय हिन्दी संस्थान

आगरा