हिन्दुस्तान वार्ता, पटना। रवीन्द्र दुबे।
---- गृहस्थ आश्रम में लोग सभ्य व साफ बस्त्र धारण करें ।
----- माताओं के बाल श्रृंगार नहीं, एक मर्यादा हैं।
अध्यात्म और विज्ञान दोनों के परस्पर सहयोग में जगत का कल्याण निहित है। मानव जीवन में विज्ञान और अध्यात्म दोनों की आवश्यकता है। मानव के भौतिक विकास में विज्ञान की महती भूमिका है, लेकिन विकास का अर्थ केवल भौतिक विकास नहीं होता। भौतिक विकास के साथ-साथ मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास भी होना चाहिए। यदि भौतिक विकास के अनुपात में आध्यात्मिक विकास हो तो सोने में सुगंध । विज्ञान से अध्यात्म को हटा देने से समाज का सर्वागीण विकास व कल्याण संभव नहीं। अध्यात्म के बिना विज्ञान निरंकुश हो जाता है। आज के वर्तमान दौर में अध्यात्म की महत्ता और बढ़ गयी है। उपरोक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी ने ज्ञान यज्ञ स्थल पर प्रवचन करते हुए कहीं।
श्री जीयर स्वामी ने कहा कि समाज के विकास के साथ विज्ञान की महत्ता बढ़ती जाती है। आज विश्व के सभी देश विज्ञान पर निर्भर हो गये हैं। विज्ञान पर यह निर्भरता उसकी निरंकुशता की चरम ने बन जाये इसके लिये अध्यात्म का अंकुश आवश्यक है। विज्ञान की प्रगति से समर्थ होने का दंभ होता है, लेकिन अध्यात्म से संयम होता है, मानसिक विकारों पर नियंत्रण होता है। आज विज्ञान जहाँ पहुँचा है, वहां अनादि काल में ही हमारे मनीषी पहुंच गये थे, जिसका उल्लेख शास्त्रों में हम पाते हैं। संजय की आंखों से महाभारत की घटनाओं का वर्णन, शब्द वेदी वाण, पुष्पक विमान आदि को आज की वैज्ञानिक तकनीकी ने साबित कर दिया है। इस भौतिकवादी युग में वास्तुशास्त्र के अनुसार बड़े-बड़े भवनों का निर्माण किया जाना भी इसका प्रमाण है।
गृहस्थ आश्रम की चर्चा करते हुए स्वामी जी ने कहा कि प्रति दिन स्नान कर धोया हुआ वस्त्र धारण करना चाहिए। उन्होंने कहा कि संन्यासी अगर अपने वस्त्रों को नहीं धोये और धूप दिखाकर झाड़ दे तो उसके वस्त्र शुद्ध है। उन्होंने वर्तमान में फैशन के तहत खरीदे जाने वाले फटे वस्त्रों (जिंस आदि) को अमर्यादित और कुसंस्कारी वस्त्र बताया। उन्होंने कहा कि वस्त्र एक मर्यादा है। स्त्री-पुरुष को असभ्य वस्त्र नहीं धारण करना चाहिए। संतों की लंगोटी और सोटी का महत्त्व है। गृहस्थ आश्रम में सुन्दर तरीके से वस्त्र धारण करने का महत्त्व हैं। इसके लिये आवश्यक नहीं कि वस्त्र महंगे हो बल्कि साफ और मर्यादित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि माताओं के बाल श्रृंगार नहीं, मर्यादा हैं। बाल का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। बाल और नाखुन को दांत से काटना नहीं चाहिए। यह कार्य अमंगल का द्योतक है। स्वामी जी ने कहा कि किसी शब्द मात्र से उसका वास्तविक अर्थ नहीं किया जा सकता है। शब्द का सही अर्थ शास्त्र, स्मृति, इतिहास और पुराण में वर्णित प्रसंगों के आलोक में देखना चाहिए।
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