हिन्दुस्तान वार्ता, पटना।रवीन्द्र दुबे।
-----सिर्फ तनाव से उत्पन्न हो जाते हैं कई रोग
-----पद प्राप्ति के बाद रखें मर्यादा का ख्याल
-----अभिमानी मनुष्य का पतन निश्चित
------ धन-संपत्ति के बजाय अच्छे संस्कार को दें प्राथमिकता
पद प्राप्ति के बाद अपने कार्य एवं व्यवहार में मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए। जो जिस योग्य है उसे यथोचित सम्मान देना चाहिए। पद पर आसीन होने के बाद यदि पद का अभिमान हो जाए तो पतन निश्चित है। ऐसे लोगों को पदच्युत होने के बाद समाज अच्छी निगाह से नहीं देखता। वे स्वयं भी पश्चाताप की अग्नि में जलते रहते हैं। उपरोक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी ने ज्ञान-यज्ञ में प्रवचन करते हुए कही। श्री जीयर स्वामी श्रीमद भागवत महापुराण के छठवें स्कन्द की कथा के क्रम में कहा कि इन्द्र अप्सराओं के साथ नृत्य में इतने लीन थे कि देवगुरु बृहस्पति के आगमन का भी उन्हें ख्याल नहीं रहा। गुरु बृहस्पति इन्द्र के व्यवहार से क्रोधित हो गये इंद्र को अपने कृत्य पर पश्चाताप हुआ। वे गुरू बृहस्पति से क्षमा मांगने के लिए निकले लेकिन बृहस्पति अन्तर्धायन हो गये। बृहस्पति के अन्तरध्यान की सूचना राक्षसों को मिल गयी। वे अपने गुरु शुक्राचार्य की सहमति से इन्द्रलोक पर चढ़ाई कर दिये इन्द्रासन जीत लिये। गुरु बृहस्पति के नहीं रहने के कारण देवताओं का तेज समाप्त हो गया। दमगज, वैभव के प्रभाव से अपने व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाना चाहिए। स्वामी जी ने कहा कि लक्ष्मी चरण धूलि के समान हैं। ये बार बार आती-जाती है अस्थिरता लक्ष्मी का स्वभाव है वे स्थायी रूप से कही वास नहीं करती। जैसे मनुष्य कही से आने आने के क्रम में अपना पूरा शरीर नहीं घोता लेकिन चरण धोते रहता है। इसलिए लक्ष्मी (धन-दौलत) को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए। लक्ष्मी आती-जाती रहेंगी लेकिन एक बार अपनी मर्यादा से व्यक्ति गिर जाए तो जीवन पर्यन्त उसकी भरपायी संभव नहीं। श्री जीयर स्वामी ने कहा कि वर्तमान समय में व्यक्ति की अस्वस्थता का प्रमुख कारण तनाव है और तनाव का मुख्य कारण अनन्त अपेक्षायें है। समाज से अधिक अपने परिजनों से ही व्यक्ति को अधिक तनाव मिल रहा है। व्यक्ति अपने प्रयास से घर परिवार को सजाता संवारता है। पुत्र-पुत्रियों को पढ़ाता लिखाता है लेकिन जब वे उनकी अपेक्षा के अनुरूप व्यवहार में खरा नहीं उतरते तो उन्हें मानसिक तनाव हो जाता है। यह मानसिक तनाव कई रोग पैदा कर है। स्वामी जी ने कहा कि अपने परिजनों से तक अपेक्षायें नहीं रखे अन्यथा मानसिक तनाव का गिफ्ट जरुर मिलेगा। मनुष्य अपने दुख का कारण स्वयं है। हम अपने परिजनों के लिए सुख-समृद्धि के संसाधन जुटाने में आजीवन व्यस्त रहते हैं। हम कभी भी अपनी संतति में अच्छे संस्कार के बीजारोपण का प्रयत्न नहीं करते। संस्कारी संतान से माता-पिता को कभी भी शिकायत नहीं होती स्वामी जी ने कहा कि आज लक्ष्य से भटकाव की बातें अक्सर सुनी जा रही है। विद्यार्थी कहता है कि पढ़ने में मन नहीं लगता। स्वामी जी ने कहा कि बचपन से बच्चों को संस्कार दे और विलासी साधनों की अपेक्षा जरूरी साधन ही उपलब्ध बरायें। इसका कारण क्या है? इसका मुख्य कारण भौतिक संसाधनों की उपलब्धता है और अच्छे संस्कार का अभाव है। आज के अभिभावक विद्यार्थियों के मन में सदाचार स्वाध्याय इत्यादि संस्कारों के बीजारोपण नहीं करते वे उन्हें विलासिता के वातावरण में पोषित कर रहे है। ऐसा विद्यार्थी किस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अध्ययन में लीन होगा। विद्यार्थी को सहज जीवन व्यतीत करना चाहिए। नीति कहती है सुखार्थीन: कुतो विद्या, विद्यार्थिनः कुतो सुखम् ? यानी सुखार्थी को कहाँ विद्या और विद्यार्थी को कहाँ सुख?