लक्ष्य पवित्र नहीं हो तो वरदान भी हो जाते शाप - श्री जीयर स्वामीजी।

 


हिन्दुस्तान वार्ता, पटना।रवीन्द्र दुबे।

----- शास्त्र विरोधी विवाह से जीवन में शांति नहीं 

----- संयमित वाणी से मिलता है सम्मान


लक्ष्य पवित्र नहीं हो तो वरदान भी शाप बन जाता है। अपने साधन और सामर्थ्य को समाज हित में लगाए दूसरे के हित के प्रयोजन से उपर्युक्त सहयोगी साधन भी विपरीत परिणाम देने लगते हैं। नकारात्मक विचार और कुकृत्य से समाज में व्यक्ति को यथोचित सम्मान प्राप्त नहीं होता है। इसलिए नकारात्मक भाव मन में अंकुरित भी नहीं होने दें। उपरोक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी ने ज्ञान यज्ञ में प्रवचन करते हुए कहीं।


श्री जीयर स्वामी ने कहा कि व्यक्ति को ईश्वर द्वारा प्राप्त शरीर और संसाधनों का कभी दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से शक्ति और साधन क्षीण होते हैं और समाज, व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखता है प्रहलाद अपने पिता हिरण्यकश्यपु द्वारा लाख समझाने एवं प्रताडित करने के बावजूद भगवान से अलग नहीं हो रहे थे।


हिरण्यकश्यपु ने प्रहलाद को पहाड़ से गिरवाया, हाथी से कुचलवाया और विष पिलवाया लेकिन वे ईश्वर कृपा से सुरक्षित रहे हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका ने तपस्या से एक ऐसी चादर प्राप्त थी, जिसे ओढ़ने के बाद अग्नि का प्रभाव नहीं होता था। हिरण्यकश्यपु ने प्रहलाद को जलाने के लिए होलिका का उपयोग किया। होलिका जब प्रज्जवलित अग्नि में प्रहलाद को लेकर बैठी तो प्रभुकृपा से ऐसी आंधी आयी कि चादर होलिका के शरीर से उड़कर प्रहलाद के शरीर को ढक लिया। होलिक जल गयी और प्रहलाद बच गए। होलिका का उद्देश्य पवित्र नहीं था। इसलिए सहयोगी साधन भी विपरीत परिणाम दे दिया। भौतिक एवं अभौतिक साधनों को दूसरों के अहित में नहीं लगाना चाहिए।


स्वामी जी ने कहा कि वाणी पर संयम रखना चाहिए। बिना सोचे-विचारे कुछ नहीं कहना चाहिए। इसीलिए नीति कहती है कि शास्त्रपूतं वदेत वाचम्- यानी शास्त्र के अनुकूल वाणी बोलनी चाहिए। मन से सोचकर वाणी बोलनी चाहिए। जो शिक्षा, भगवान, संत और शास्त्र के विरोधी हो, वह शिक्षा ग्राह्य नहीं है। उन्होंने कहा कि गलत आहार, गलत व्यवहार एवं शास्त्र विरुद्ध विवाह के कारण जीवन में शांति नहीं मिलती। बल्कि जीवन संकटमय हो जाता है। हमारे बोलने और देखने की शैली अच्छी नहीं हो तो जीवन निराशपूर्ण हो जाता है। यह शरीर भोग के लिए नहीं, योग के लिए है। परमात्मा से मिलन ही वास्तविक योग है। वर्तमान दौर में बालक, युवा और वृद्ध सभी तनावग्रस्त जीवन जी रहे हैं। बालक का पढ़ने में मन नहीं लगता। युवा अपनी जिम्मेवारी से भटक रहे हैं और वृद्ध उपेक्षा भावना से ग्रसित हैं।


उन्होंने कहा कि का आठ से दस वर्ष की आयु वाले कुमार कहलाते हैं। आज-कल बुढे भी कुमार कहे जाते हैं। कुमारावस्था से धर्म के प्रति आचरण शुरू कर देना चाहिए। इससे जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की उपलब्धि होती है। विषय-सुख तो जीव को सभी योनियों में मिलता है, लेकिन विषय-सुख से निवृति केवल मानव योनि में ही संभव है। इसी के लिए परमात्मा जीवों को मानव योनि प्रदान करते हैं। मानव शरीर ही परमात्मा की प्राप्ति का उत्तम साधन है। इस शरीर को नर-नारायणी शरीर कहा गया है। शरीर रूपी नगर में ईश्वर वास करते है। मानव शरीर के लिए देवता भी तरसते हैं।