किसान और सरकार को पटाक्षेप मंथन की जरूरत

 



प्रेम शर्मा,लखनऊ।

एक लम्बे समय तक चलने वाले किसान आन्दोलन पर अब किसान और सरकार को पटाक्षेप मंथन की जरूरत है। नए कृषि कानून के खिलाफ यह लम्बा आन्दोलन निश्चित रूप से सरकार और आन्दोलनकारियों के लिए एक सबक है। एक तरफ सरकार को जहाॅ इनके विरोध की कोई बड़ी चिन्ता नही सता रही है वही दूसरी तरफ किसान अनावश्यक रूप से सरकार का ध्यान आकृर्षित कराने में अपनी ताकत जाया कर रहे है। यानि पिछले सात से चला रहा किसानों का आन्दोलन न किसानों को कोई फायदा दिला पाया न ही इसका सरकार पर कोई असर पड़ा। किसान और सरकार के बीच कई दौर की वार्ता भी अब तक बेनतीजा रही है।  ऐसे में अब यह आन्दोलन पटाक्षेप की राह पर दिख रहा हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि इस आन्दोलन का पटाक्षेप कैसे होगा। जबकि सरकार इस बात का बार बार दावा कर रही है कि इससे किसानों को बड़ा फायदा होगा, न तो मंडिया खत्म होंगी न ही सरकारी प्लेटफार्म खत्म होंगें, इसमें किसान मंडी में भी अनाज बेच सकेगा और बाहर भी, फसल बोने से पहले कॅान्ट्रैक्ट करना है या नहीं किसान इसके लिए आजाद होंगें। किसान अपनी इच्छा के अनुसार फसल बेच सकेगा और 3 दिन में ही अपने फसल की कीमत भी पा जाएगा। तो ऐसी परिस्थिति में इस तरह के सवालों का उपजना जायज है कि किसानों के आंदोलन को बल कौन दे रहा है ? इस आंदोलन से किसका फायदा, किसका नुकसान ? खत्म हुए आंदोलन में किसने भड़काई चिंगारी ? आंदोलन के यू-टर्न में किसान या सियासतदान ?


जबकि नए कानून में किसानों के हितों का प्रावितधान है जैसे पहला किसान अपनी उपज एपीएमसी यानी एग्रीक्लचर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी की ओर से अधिसूचित मण्डियों से बाहर बिना दूसरे राज्यों का टैक्स दिए बेच सकते हैं।दूसरा कानून है - फार्मर्स (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विस कानून, 2020. इसके अनुसार, किसान अनुबंध वाली खेती कर सकते हैं और सीधे उसकी मार्केटिंग कर सकते हैं। तीसरा कानून है - इसेंशियल कमोडिटीज (एमेंडमेंट) कानून, 2020. इसमें उत्पादन, स्टोरेज के अलावा अनाज, दाल, खाने का तेल, प्याज की बिक्री को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर नियंत्रण-मुक्त कर दिया गया है। यानि कानून के मुताबिक इससे किसानों को फायदा ही होगा। इसके विरोध में कृषि कानून विरोधी किसान आंदोलन के सात माह पूरे होने के बहाने प्रदर्शनकारियों ने राजभवनों को घेरने का जो अभियान चलाया, वह एक-दो जगह छोड़कर नाकाम और निष्प्रभावी रहा तो इसी कारण कि वह अपनी धार खोने के साथ अपने उद्देश्य से भी भटक चुका है। आंदोलनकारी ले-देकर चंडीगढ़ और दिल्ली में ही थोड़ी-बहुत हलचल पैदा कर सके। इससे साफ हो गया कि आम किसानों का इस आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं। लेना-देना हो भी क्यों, उनकी फसलों की रिकार्ड खरीद हुई और पैसा सीधे उनके खातों में पहुंचा। इसके अलावा वे इससे भी परिचित हैं कि विभिन्न फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी लगातार बढ़ रहा है। किसान नेताओं के इस आरोप में कोई दम नहीं कि मोदी सरकार एमएसपी खत्म करने जा रही है। यह बेसिर-पैर का आरोप है इसका प्रचार कर किसानों को बहकाया जा रहा है। किसान संगठनों के साथ इस आरोप को उछालने का काम कुछ विपक्षी दल भी कर रहे हैं। 


वास्तव में अब इस अंदेशे की पुष्टि हो चुकी है कि विपक्षी दल किसान संगठनों को उकसा रहे हैं। गत दिवस राहुल गांधी ने यह ट्वीट करके किसान संगठनों को राजनीतिक दलों की शह मिलने की आशंका पर मुहर ही लगाई कि हम सत्याग्रही अन्नदाता के साथ हैं।सरकार लगातार तर्क दे रही है कि नये कानून से किसानों को ज्यादा विकल्प मिलेंगे और कघ्ीमत को लेकर भी अच्छी प्रतिस्पर्धा होगी। इसके साथ ही कृषि बाजार, प्रोसेसिंग और आधारभूत संरचना में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा। जबकि कतिपय नेता किसानों को यह समझाने का प्रयास कर रहे है कि नए कानून से उनकी मौजूदा सुरक्षा भी छिन जाएगी। यहाॅ सरकार को ये समझना पड़ेगा कि उसकी नीतियों की वजह से कृषि का संकट बढ़ रहा है। सरकार की जो सब्सिडी पॉलिसी है, जो फर्टिलायजर पॉलिसी है। इन सब नीतियों की वजह से किसान की खेती की लागत बड़े पैमाने पर बढ़ रही है और इस पर सरकार की नजर नहीं जा रही है।


वैसे देखा जाए तो दुर्भाग्य से अपनी नाकामी से कुंठित किसान नेता भी यह छिपाने की कोशिश नहीं कर पा रहे कि उनका आंदोलन विरोधी दलों के हाथों का खिलौना बन चुका है। उन्होंने पहले बंगाल विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी के पक्ष में माहौल बनाया और अब यह कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा को सबक सिखाएंगे। वे इस मुगालते में हैं कि बंगाल में भाजपा की पराजय उनके कारण हुई। वे इस मुगालते में बने रहें, लेकिन कम से कम यह तो देखें कि आम किसान किस तरह उनसे छिटक गया है। उन्हें यह भी अहसास होना चाहिए कि तीनों कृषि कानूनों को खत्म करने की मांग मनमानेपन के अलावा और कुछ नहीं। यदि किसी संगठन-समूह के कहने से संसद से पारित कानून खत्म होने लगें तो फिर किसी कानून की खैर नहीं। हालांकि विपक्षी दल भी यह जानते हैं कि किसी सरकार के लिए इस तरह की मांग मानना संभव नहीं, लेकिन अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के फेर में वे किसान नेताओं को बरगलाने में लगे हुए हैं। चूंकि विपक्षी दलों का मकसद इस या उस बहाने सरकार को घेरना है, इसलिए वे सतही मसले उछालते रहते हैं। इससे यही पता चलता है कि उनके पास ऐसे मुद्दे नहीं, जिन पर वे जनता को अपने साथ ले सकें।


लम्बे समय चलने वाले ये आन्दोलन ने केवल आर्थिक व सामाजिक प्रभाव छोड़ते हैं. अपितु जनमानस को मनोवैज्ञानिक रूप से भी प्रभावित करते हैं. यह आन्दोलन वैसे तो अहिंसक प्रकृति के होते हैं मगर लगातार पक्ष और विपक्ष के संवाद के फलस्वरूप जो सोशल मीडिया पर हिंसा जन्म लेती है। वह समाज में वैमनस्य को जन्म देती है. जिसकी परिणति दिल्ली दंगों के रूप में होती हैं।दिल्ली जो देश कि राजधानी है लगातार उसके अस्तित्व और उसके जीवन पर ये आंदोलन नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं। मगर दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी अपने राजनीतिक हित पंजाब में भी होने के कारण इन सभी विरोधों पर कोई राय नहीं रख पा रही है। अकाली दल, आप जैसे क्षेत्रीय दल इन सब संकटों की संकीर्ण व्याख्या करें तो वह एक हद तक समझ में आता है। मगर कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी का इस प्रकार के आंदोलन को खुला समर्थन चिंता का विषय है. दिल्ली से आने से एक माह पूर्व आंदोलनकारियों ने ट्रेन यातायात को एक माह तक रोक रखा था जब सरहद पर तनाव हो और देश कोरोना के कारण नाजुक दौर से गुजर रहा हो तो इस प्रकार के निर्णय देश के सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी की संकीर्ण मानसिकता को ही प्रदर्शित करता है।