"कालाष्टमी व्रत" डॉ. विनोद शर्मा , ज्योतिष एवं पराविद।


  हिन्दुस्तान वार्ता।
 "काल शब्द समय का  वाची ही नहीँ स्वयं महामृत्यु प्रलय वाची भी है। अब इस शब्द के  अभिधान में खो जने का मतलब ही है  कालाष्टमी शक्ति को प्राप्त करना। काल स्वयं शिव का दयोतक है। पर यह  शिव स्वयं शक्ति संपन्नता का मालिक जब बनता है तो महाकाली का रूप धारण कर लेता है । अब काल को न पूछो काल स्वयं ईश्वर है महाकाल का स्वरूप है वह ईश्वर का। महाकाल यानी सूर्य । सूर्य का भी सूर्य जो ज्ञान है वह सारे कालों का अधीश्वर् है। अधीश्वरी शक्ति स्वयं स्वयं इस  काल सूर्य परिचय देती  है और यही काल स्वयं द्वादश ज्योतिर्लिंगों के रूप में धरती पर प्रकट होता है । स्ववं महेश्वर शक्ति का प्रादुर्भाव है यह  जो शिवात्मक ज्ञान है। शिवात्मक ज्ञान बना यह सारा विश्व इन बारह ज्योतिर्लिंगों में समाविष्ट है । ज्योति का प्रतीकात्मक ज्ञान ही ज्योतिर्लिंग है। यह ज्योतिर्लिंग पृथ्वी पर ही नहीं आकाश की  सत्ता भी है  जो शिवात्मज्ञान को ज्ञान को पूर्णता प्रदान करती है। शिव ज्ञान का रूप है यह बात सत्य है और इस सत्यात्मक ज्ञान के लिए ही हम शिव की आराधना  व्रत आदि का आचरण  करते हैं। अब इस ज्ञान को पाने के लिए  व्रत आदि के विधान  या आचरण मैं जाने का मतलब ही है कि हम शिव के ज्ञान के नजदीक पहुंच रहे हैं। इस शिव की इस ज्ञान रुपता को प्राप्त करने का अवसर  रुप यह व्रत है जो कालाष्टमी व्रत के नाम से जाना जाता है। अब इस  व्रत के रहस्य को पाने मतलब नहीं है। यह तो स्वयं श्री कृपा के रूप में प्राप्त है जो इस धरती का ज्ञान है। 

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