प्रदोष व्रत " और " अनंग त्रयोदशी " पर विशेष लेख :डॉ विनोद शर्मा, ज्योतिष एवं पराविद



हिन्दुस्तान वार्ता।

"प्रदोष "शब्द के अभिलेख में जाने का मतलब है स्वयं को खफा देना । प्रदोष स्वयं अंधकार पर विजय का सूचक है । मध्य रात्रि को भी प्रदोष कहते हैं और प्रत्येक महीने की कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को व्रत रखा जाता है। सूर्य अस्त के ४५ मिनट पूर्व और सूर्यास्त के ४५ मिनट बाद तक का समय प्रदोष काल का माना जाता है । प्रदोष स्वयं उस ज्ञान का सूचक है जो  स्वयं का ही 

अनुग्राही हो, अपनी रक्षा स्वयं अपनी सारी व्यवस्था स्वयं। इसलिए शिव ज्ञान के सूचक रूप में इस अवस्था या व्यवस्था को स्वीकार किया जाता है। व्रत पर्व है और अनुष्ठान विधि रूप में भी शिव को पूजित करने का अवसर भी यह है । इसलए शिव ज्ञान को याद किया जाना इस रूप में संभव है रुद्राभिषेक के रूप में । 

ज्ञान कोई भी हो पर सारे ज्ञान उस परमात्मा से ही उदभू त हैं , जिसे शिव के रूप में स्मरण किया जाता है। पर ज्ञान किस वि से संबंध रखता है यह जानने की आवश्यकता है। इसलिए इस ज्ञान को जो प्रदोष काल से संबंध रखता है उसे श्री हर भगवान शंकर के पूजन अभिषेक के निमित्त स्वीकार किया जाना परंपरा में शामिल है । यह व्रत है इस संकल्प का कि हम शिवरुपता को प्राप्त कर अपनी रक्षा करने का सामर्थ्य प्राप्त कर सकें । 

-----

अनंग त्रयोदशी :-

************

अनंग का अर्थ है कामदेव। कामदेव को स्वयं सृष्टि के विकास ही नहीं सृष्टि के सृजन के रूप में याद किया जाता है ।  सृष्टि का उद्भव और विकास दोनों ही अनंग कामदेव की ही सहायता से संपन्न होता है। श्री का पर्याय नहीं कुछ यदि काम को न समझा हो । इस विद्या को 'कामराज विद्या' के नाम से जाना जाता है । काम की सिद्धि रूपा यह विद्या स्वयं 

" श्री "अर्थात "त्रिपुरसुंदरी" के माध्यम से जानी जाती है । 'श्री विद्या' का ज्ञान स्वयं त्रिपुरसुंदरी का ज्ञान है। श्री तो विद्या है स्वयं पर इस विद्या के माध्यम से ही त्रिपुरसुंदरी को जानना संभव है। श्री की उपासना में कामदेव की उपासना का विधान है काम विजय के रूप में। इसलिए कामना पूरक इस विद्या को इस रूप में याद करने के लिए अनंग त्रयोदशी का व्रत रखा जाता है । श्री के अभिधानों में स्वयं श्री का एक रूप 'रति 'के रूप में स्वीकृत है । इस रति को कामदेव की पत्नी कहा गया है इस रूप में यदि इस ज्ञान को मान्यता दें तो रति स्वयं धातृ है इस ज्ञान की और यह ज्ञान स्वयं में महत्व रखता है "सृष्टि विद्या" से । सृष्टि विद्या का संपूर्ण ज्ञान तो श्रीगणेश को है । "गणेश विद्या" स्वयं सृष्टि विद्या है पर इस विद्या का सारा स्वरूप स्वयं कामदेव और रति के आधार पर ही रचा जाता है।

अब न समझो काम को । काम तो स्वयं ईश्वर का स्वरूप है जो स्वयं परमात्मा शक्ति के रूप में स्वयं ईश्वर में विराजमान है आज्ञा रूप में । यह श्री का ही विधान रूप है और उसी अवस्था के तहत यह ईश्वर के अनुसार चलता है। साधक को इस काम का स्मरण करना आवश्यक है। सृष्टि प्रक्रिया में ही नहीं कामनाओं की पूर्ति में भी इस कामदेव का स्मरण किया जाता है । 


२१ फेस २ चैतन्य  विहार, वृंदावन मथुरा 

चलित दूरभाष: ७३००५२४८०२