सद्भावना और प्रेम का प्रतीक संक्रांति ,खिचड़ी पर्व पुण्य काल पोंगल : डॉ विनोद शर्मा ,ज्योतिष एवं पराविद।

 


हिन्दुस्तान वार्ता।

क्रियाएँ साधारण के लिए हैं योगी को इन क्रियाओं से मतलब नहीं। योगी अध्यात्म यानि  सूक्ष्म को देखता है। सूक्ष्म का अवलोकन ही ज्ञान है, इस अर्थ में ज्ञान को अवधारणा में लाना ही मुख्य है, पर्व के मनाने का उसे मतलब नहीं । योगी काल से परे है यह सच है कि ज्ञान उनके लिए ही काम की वस्तु है । इसलिए इस समय को न देखना ,देखना स्वयं को बस। अब तक  क्रिया को समझा। अब अब धारण करो  इस ज्ञान को। आज  एक दिन बाद खिचड़ी पर्व को अवधारणा में लाना है। यह संदेश है प्रकृति का। 

                      संपादक

उपासना के अर्थ में शिव स्वयं शक्ति के प्रतीक हैं। शक्ति है वह ज्ञान की जिसे हम "दुर्गा 'या 'पार्वती " का रूप कहते हैं। अब दुर्गा के रूप को 

निखारना क्या , परमहेतुता ( वजह ) के लिए तैयार करना है ।पर यह हेतुता किस लिए, यह तो ईश्वर ही जानता है। ज्ञान के क्षेत्र में ईश्वर शिव ही मुख्य हैं। पर ज्ञान किसको कहते हैं , यह सब सब पार्वती के हक में है। अब इस "संक्रांति पर्व" का हेतु उस शिव से है जो स्वयं पति रूप में स्वयं शक्ति पार्वती  के ही नहीं, इस जगत के भी पति कहलाते हैं । पति को समझना न आसान होता है, पर पति तो पति है।  पति स्त्री का सौभाग्य है और "स्वामी " अर्थ में जगत का भी।

 अब सौभाग्य का शुभ अवसर यह् शिव स्वयं सूर्य रूप में अपनी किरणे बिखेरने के लिये धरती पर आया है। मास का पहला दिन हो या दूसरा  या तीसरा  इससे मतलब नहीं। संक्रांति के लिए तो पहले दिन से पूरे महीने का काल स्वयं सूर्य के" मकर राशि" में प्रवेश के प्रभाव का काल है।  " धनु राशि " का मालिक शनि नहीं, गुरु है। यह गुरु स्वभाववश जातक को उठने नहीं देता है, दबाता है। पर जैसे  ही सूर्य देव इस राशि से मकर में प्रवेश करते हैं तो यह सूर्य भाग्य - वृद्धि में चार चांद लगा देते हैं । यही  पर्यवेषण काल है है सूर्य का। 

ज्ञान के क्षेत्र में शनि सूर्य लगभग  उन्नीस- बीस के अंतर पर हैं,पर सूर्य की संज्ञा "गुरु"की है। सूर्य आदि शक्तियों के गुरु  हैं। अब लोक में गुरु - पुत्र भी गुरु ही होता है, इस मान्यता से शनि भी सूर्य के पुत्र होने का पूरा लाभ उठाते  हैं । आसन की उच्चता विचारों से होती है।  शनि ने अपने आसन को अपने श्रेष्ठ विचारों से बढ़ाया है प्रतिष्ठा दिलायी है। न्याय का   आसन उन्हें अपनी योग्यता से ही  मिला है। अब अब छाया- पुत्र  का भी मतलब न रहा। कर्म ही श्रेष्ठ है, कर्म से ही पूजा होती है। कर्म की श्रेष्ठता ने ही उन्हें महान बनाया है।  

 जहाँ तक घर का सवाल है शनि ने अपने कक्ष से ही नियंत्रण का कार्य-भार संभाला। पर कक्ष  तो कार्यालय की तरह है, घर तो घर ही होता है

 अब घर को न समझो ,समझो उसकी सन्त --प्रवृत्ति को। इस शनि ने स्वयं  क्रोधाग्नि से जले अपने घर का अफसोस नहीं किया, जिसकी वजह कि पुनः वे घर के मालिक के बने। घर के ही नहीं, धन -संपत्ति के भी। पिता का रुख  अचानक बदला, यह सब प्रकृति का ही अनुरोध रूप था। 

प्रकृति ने चाहा तो हुआ प्रकृति परीक्षा लेती है ,पर जब  फसती है तो देना ही पड़ता है । नियम नहीं, यह मजबूरी है। अब साधनों को न देखो ...,.देखो शनि की " दैवी संपदा" को ,जो उसने सूर्य से नहीं, साक्षात "श्री " से प्राप्त की है ।

शनि -सूर्य का यह मेल आखिर रंग लाता है । धरती पर सौभाग्य  की छटा दिखाता है। "रंग पंचमी' हो या "होली 'सब सब रंग यानि मेल का त्यौहार है पर्व है ।   पर्व नाम उल्लास का है, इस उल्लास को प्रकट करने के लिए आपस में रंग लगाया जाता है। विभिन्नता मैं एकता का ही मतलब है   कि अभेद  हो जाना। सूर्य -शनि मिलकर एक हो गये हैं । 

"वर्तमान सत्ता" सूर्य ,शनि से अलग नहीं, इनके मेल को प्रबल बनाती है। इस अव्यक्त सत्ता का मालिक जो भी हो, पर इन दोनों के लिए तो वरदान सिद्ध हुआ है। शनि - सूर्य प्रवेशन नहीं,  संमिलन  है ज्ञान का। इस ज्ञान को संमिलन अर्थात सम्मेलन  या समारोह के अर्थ  में ही संक्रांति पर्व खिचड़ी प्रसाद के रूप में ग्रहण कर उत्सव  मनाते हैं । खिचड़ी का अर्थ ही है योग यानि मेल।

  पोंगल   त्यौहार   मुख्य रूप से दक्षिण भारत में मनाया जाता है। यह  त्यौहार  चार दिनों तक मनाया जाता है। यह  चार दिन का त्यौहार उन देवताओं को समर्पित होता है जो कृषि से संबंधित होते हैं ।  पोंगल त्यौहार के दिन जो प्रसाद भगवान सूर्य को भोग रूप में अर्पित करने के लिए  तैयार किया जाता है उसे  पोंगल कहते हैं । इसलिए इस पर्व को पोंगल कहकर पुकारा जाता है यह पोंगल तमिलनाडु का प्रसिद्ध  त्यौहार है। इस  पर्व  पर पृथ्वी ,  सूर्य इत्यादि की पूजा की जाती है। 

साधुक्कड़ी भाषा  का क्या? जहाँ गये  वहीं  के हो गये, वहीं के शब्दों को ग्रहण कर लिया "कबीर" ने। कबीर  शब्द  का अर्थ "महान" होता है। इस अर्थ में सूर्य का शनि से संयोग या सहयोग ही नहीं, स्वयं स्वयं इस प्रकृति की वस्तु का, पदार्थ का मेल खिचड़ी के रूप में इस हेतुता का द्योतक है। अब भाषा के अर्थ में पंचमेल खिचड़ी को ही  हम प्रसाद रूप में ग्रहण कर अपने भाव इस रूप में  कि हम एक हो गये हैं के प्रकृति के संदेश को उजागर करते हैं। 

 व्रत, उपवास तो आत्मा की शुद्धि के लिए हैं, पर एक साथ बैठकर भोजन करने से मेल और प्रेम का स्वरूप बनता है। इसलिए शनि- सूर्य एक साथ बैठकर भोजन ग्रहण करते हैं पहले सूर्य  फिर शनि भोजन की शुरुआत करते हैं। प्रसन्नता सूर्य की उभरती है सौभाग्य के रूप में । शनि का सौभाग्य ही नहीं, शनि के मित्रों का भी भाग्य बढ़ाने के रूप में यह सब संक्रांति का पर्व है,जो पूरे एक महीना तक प्रभाव दिखाता है । सूर्य अपनी किरणें धरती पर बिखेरते हैं और शनि पर भी  बिखेरते हैं। इसलिए शनि- सूर्य का मेल रूप यह पर्व सबके लिए सुखदायी है।

ज्योतिष के अनुसार धनु राशि का स्वभाव क्रूर है और मकर का सौम्य। इसलिए  धनु से मकर में जैसे ही ये प्रवेश करते हैं तो ये सूर्य सौम्य में हो जाते हैं। 

"शिव" की "मृत्युंजयी शक्ति " का प्रताप  बना सूर्य  स्वयं " महाकाल" का रूप है।  कालात्मक सूर्य ज्ञान का संदेशक  है। इस संक्रांत वेला में स्वय अनेक   ज्ञानों  को यानि विद्याओं को प्राप्त करने का भी यह  अवसर है ।

 ज्ञान की संपदा को समेटे सूर्य अकेले नहीं ,पुत्र भी शामिल है। दोनों की रजामंदी से जो लेना- देना रहता है वह साधक के हित में न्याय के साथ ही जाता है यानि प्राप्त होता है। शनि की न्याय- दृष्टि स्वयं इस हेतुता ( वजह ) को संभालती है।

अब ज्ञान को न पूछो, पूछो सांठ - गांठ  को चतुराई को कि कैसे सूर्य अपनी विद्याओं से शनि के हित मे काम निकालता है। शनि सूर्य का यह मेल घातक नहीं, साधक है विद्याओं का। विद्याओं के लिए भी यह सौभाग्य है।  इसलिए सूर्य और शनि- संबंधी विद्याओं को प्राप्त करने का यह  सुअवसर भी है।

 शनि के  जितने भी नाम हैं उनमें "यमाग्रज" सबसे प्रिय है।  कारण समस्या को  सुलह करने में "यम" का ही सबसे बड़ा हाथ था।  न यम देव व्रत रखते और न  सूर्य का प्रेम उमड़ता। अब सब सब और सब रूप से कारण कोई भी हो, शनि - सूर्य का यह मेल अनोखा है ,जो क्रोध  भी प्रेम में बदल जाता है, सुख संपदा का प्रतीक बन जाता है।

" अब न पूछो प्यार को

पूछो उस दिलदार को। 

जो स्वयं ही कष्ट सहकर

दोनों को मिलाता है।। 

प्यार का करिश्मा है

न कोई सौदाई। 

होना है कुछ

तनहाई और कन्हाई।। 

अब तो सुलह हो गयी

पिता  पुत्र  की  स्वयं ही। 

स्वयं बरसात होनी है

अब कंकड़ों की न स्वर्ण की।। 

स्वर्ण किरणें  हैं ये

जो सूरज की कहलाती हैं। 

 आती  हैं धरती पर

हर वक्त ही आती हैं।।

पर ऐसा कुछ अनोखा है

जो कभी न  देखा है।

 इस काल में ही

सब सब हो जाता है।।

किरणें पड़ती सूरज की

यह प्रेम की बरसात नहीं। 

यह सौभाग्य  की झड़ी है

कहने की अब बात नहीं।।

जय जय महान। 

-२१ चैतन्य  विहार, वृंदावन ,मथुरा।

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