मकर संक्रांति का संदेश (प्रकृति को समझो इसे सराहो एवं संवारो) डॉ विनोद शर्मा, ज्योतिष एवं पराविद।

 


हिन्दुस्तान वार्ता।

विनाश या सर्वनाश इस बात का प्रतीक होता है कि, कि अब देना नहीं लेना है । प्रकृति का संहार रूप ही विनाश का द्योतक है। प्रकृति चाहती नहीं, पर प्रकृति भी क्या करें जब कोई उसे रक्षा न मिले। इसलिए   सोच का तो परिणाम मिलना लाजमी है। ईश्वर की शक्ति पर भरोसा का मतलब नहीं, ईश्वर अपनी जगह है। ईश्वर कभी नहीं कहता  कि तुम  कूआ को खोदो और वह भी गिरकर मरने के लिए । और यदि गिरकर मरने के लिए  कूआ खोद  रहे हो तो तुम्हें ईश्वर से आशा न करनी है। 

"मौत का सामान लेने चले ,

ए हुस्न वालो। 

अब अब इस हुस्न न देखो ,

अब तो मौत से ही पूछो।'"

 मनुष्य खुद ही मरता है तो उसे बचाने वाला कोई नहीं। इस सृष्टि की प्रकृति के ताने--बाने में  प्रत्येक 

आलने में ईश्वर का नाम लिखा है। पहले जुलाहे खेस (ओढ़ने के  लिए) बनाया करते  थे। मन में प्रभु का नाम संकीर्तन भी करते थे ,पर अब संकीर्तन क्या ,ईश्वर को कोसना ही  रह गया  यह कि भगवान ने यह नहीं दिया ,भगवान ने ऐसा नहीं किया . .....। भगवान तो सबके लिए है उसका किसी एक से नाता नहीं। पर हम उस ईश्वर से नाता जोड़ें तो। हम उसे मान ही नहीं रहे हैं। उसने हमें पैदा किया जन्म दिया इतना भी नहीं सोच रहे हैं तो फिर हमारा उसका संबंध कैसे कायम रह सकता है? संबंध विचारों से ही बनता है। किसी से चाहें  सबकुछ पर उसके प्रति भावनात्मक रूप का एक अंश भी प्रदान न करें तो कैसे संभव है कि हम उससे पाने की आशा कर सकें। ईश्वर सबका है यह बात ठीक है पर क्या करे कोई जब उसे ही अपने से दूर कर ले? 

ईश्वर प्रकृति का नियंता है, प्रकृति के साथ है। प्रकृति जैसा चाहती है उसे करना होता है। 

एक पिता की चार संताने हैं, दो आज्ञाकारी और दो धुंधकारी। आज्ञाकारी आज्ञा में रह रहे हैं और धुंधकारी विनाश करने की सोचते हैं। बस यही हो रहा है । प्रकृति पर्याय न ढूंढती है वह कर डालती है। हम जिसे जिस भाव से देखते हैं ,वह हमें वैसा ही प्रदान करता है। प्रकृति का माँ का  रूप है, पर प्रकृति को ही जब हमने नष्ट करने का मन बना लिया तो फिर वह माँ कब तक अपनी रक्षा की न सोचेगी। उसे भय दिखाना ही होगा। अब आपने सब देख लिया । उसका गुस्सा भी देखा, उसका विनाशक रूप भी देखा। इतने पर भी निर्लज्ज तूने हे मनुष्य! उस प्रकृति के बारे में न सोचा। इसका मतलब है कि तू देना नहीं, लेना ही जानता है। जरा सोच कि क्या दिया तूने प्रकृति को ? प्रकृति वरण करती है अपने रक्षक को। उसने अपना जीवन साथी नहीं , रक्षक नियुक्त कर लिया है। अब जीवन साथी से मतलब न रहा रक्षक बिना क्या? 

प्रकृति पुरुष से मिलना रक्षात्मक ही है। न चाहती है वह किसी को, उसकी मर्यादा है। पर जब उसकी जान पर कोई आ जाए तो उसे रक्षा का सौदा स्वयं ही तय करना पड़ता है। प्रकृति पुरुष का  वरण बड़ी मजबूरी में करती है। ऐसे मौके पर वह क्या करें ........?  उसे अपने रक्षक का चुनाव करना ही पड़ता है।  

" एक गया हजार गये पर पर किसी ने .न सोचा। अब उसने सोच लिया है  अपने रक्षक के साथ रहने का। "

पिता जनक जननी सब सब मात्र कहने को नहीं, आदर भी चाहिए। इन शब्दों का मतलब भी होता है ।हम इनका मतलब भूल गए हैं। हमारी सोच अपना ही बस. ...... । किसी से कुछ नहीं..........।

अरे, तुमने माता के गर्भ से जन्म लिया, प्रकृति ने पाला ईश्वर के आशीर्वाद रूप में। अब हम यह भी नहीं कह रहे हैं। आज कान्वेंट स्कूल मैं पढ़ा बड़ा बालक यह सोच ही नहीं पा रहा है। कमी संस्कारों की आ रही है। भावनाएं भी क्या करें जब हमने ही उन्हें मार डाला। हम नहीं कहते कि ईश्वर हमारा पिता है। एक बार मन से कहकर तो देखो। 

" त्वमेव माता च पिता त्वमेव

तुम ही बंधुश्च सखा त्वमेव। 

 त्वमेव  विद्या द्रविणं   त्वमेव 

त्वमेव सर्वम् मम देव देव। । "

बस संबंध कायम है। संबंध तो है पर हमने  उस संबंध को मान्यता देनी बंद कर दी है। सूर्य को अर्घ्य देने  का ही मतलब है कि हम उसे अपना मान रहे हैं। सूर्य  इस अर्घ्य के बदले   सहस्त्रों गुना वर्षा के रूप में प्रदान करते हैं। बड़ी-बड़ी बातें छोड़ो। मैं नहीं कहता  कि इस शास्त्र में यह लिखा, उस शास्त्र में यह लिखा। शास्त्र तो तुम खुद हो, यदि तुम ईश्वर को जानते होते, मानते होते तो शास्त्र न बनते। शास्त्र तो उसने अपने ही    कारिंदों से मजबूरी में बनवाये। हमने जब उससे अपना संबंध अलग कर लिया, भावना का पहलू दूर कर लिया तो सब कुछ एकतरफा हो गया। अब वह सोचे भी तो  किसकी ?  उसने प्रकृति को कह दिया कि यह मनुष्य मेरी नहीं मान रहा है। मेरे चलाए रास्ते पर नहीं चल रहा है तो उसने प्रकृति को जवाब दे दिया कि तू अपनी रक्षा अपने भरोसे कर।

 ईश्वर सर्वशक्तिमान है उसने शास्त्र भी बनाए इस सृष्टि को भी सब सब उसका दिया है। सृष्टि  के निर्माण के साथ   अन्ना,जल, पेड़- पौधे, वनस्पति आयुर्वेद का ज्ञान  आयु आरोग्य की रक्षा के लिए और मनोरंजन के लिए नाट्य शास्त्र संगीत वेद गंधर्व सब सब। पूरा इंतजाम किया है इस मनुष्य के जीने का।  पर हमने उसे अपना पिता नहीं माना। जनक- जननी भाव तो संबंध का सौदा है , वह रक्षा की सोचता है पर क्या हम उस ईश्वर के प्रति एक बार सोचते हैं कि तुम मेरे हो। रक्षा तो क्या करेगा  ?  ....हे प्रकृति! तू मेरी  माँ है केवल और केवल । अब हाथ जोड़ने से कुछ नहीं होने वाला। 

प्रकृति गाय का रूप धर ब्राह्मण के पास आयी है । हे ब्रह्मा! तुम मेरी रक्षा करो। ब्राह्मण ने वेद की रक्षा का संकल्प उठाया कि मैं इस प्रकृति के ज्ञान को सुरक्षित रखूंगा । वेद प्रकृति का ज्ञान है। सूर्य  सूक्त ,  उषा  सूक्त,पर्जन्य सूक्त ये सारे सूक्त उस प्रकृति को समझने की ,उससे भावनात्मक संबंध कायम करने की एक शिक्षा रूप  हैं।

वेद का अर्थ ही है कि जिसने हमें बनाया उसे जानें। पर हम कितना कर पाते हैं, यह खुद से ही पूछ सकते हैं। जो प्रकृति ने या परमेश्वर ने हमें दिया उसका हम सही मायने में उपयोग करना नहीं जान पाये हैं। वेद सार्वभौम ज्ञान है उस ईश्वर का  जो सबके लिए है, सनातन है । 

सनातन ज्ञान जिसे हम अध्यात्म भी कहते हैं उसके साथ कितने हैं  ? एक मंत्र का सही उच्चारण नहीं कर सकते और चारों वेदों की बात करते हैं । अमुक शास्त्र में यह लिखा है इतना भी तो कहो। बस वेद शास्त्रों में लिखा है। लिखा तो बहुत है पर अमल कर नहीं रहे करवा रहे हो। पर करेगा कौन....?   हम और तुम के अलावा कोई अन्य। अब हम दोनों के बीच तीसरा  कहाँ से आ गया ? इस तीसरे का ही चक्कर  जो हमें बांध रहा है। इसको हटा दो बस मामला साफ है। हम खुद फिर सुरक्षित हैं। मैं जानूं और तू जाने। यह तीसरा कहां से आ गया? 

शास्त्र प्रकृति ने इस जीव ( मनुष्य)  की हिफाजत के लिए बनाए हैं। ज्ञान बिना रक्षा नहीं।  इन्हें समझने में ही हमारी भलाई है , वह भी खुद पढ़ने से। दूसरे के सुनने से अच्छा है खुद उस ईश्वर का नाम लेना। पढ़ो आज्ञा लो किसी महापुरुष से और फिर फिर पढ़ो ।  तुम्हें तुम्हारा खोया मिल जायेगा। गीता पढ़ो, गीता में आपका उत्तर है उपाय हैं । शास्त्र जोड़ने का उपाय  हैं । शास्त्र परमात्मा के रूप होते हैं। उन्हें पढ़ो उन्हीं में ईश्वर बसा  है। मूर्ति तो जो अक्षर नहीं समझता उसके लिए है। ईश्वर को अक्षरों में खोजो वह तुम्हारा अपना है। तभी प्रकृति का जो ज्ञान है उससे लाभ लेने का तरीका समझ आ

जायेगा और सुखी रहने का उपाय भी । 

"जमाने  हुस्न ने तो क्या,

 सब प्रकृति ने बनाया है । 

सब  खो  दिया तूने ,

 क्या जानकर भी । 

 अब उसको  मनाना  है,

रुठा न वह बस,

तुमको मनाना है । 

यह मन लौटकर आना है,

लौटकर आना है ।"

यह मन ही परमेश्वर है,

मन को ही तूने न समझा है,

बस इसे समझ और

 सुख से रहना है।।

"ईश्वर संबंधात" ही सब कुछ है। अब इस  " संक्रांति पर्व "को समझो और समझो उस पूर्णकाम को  उस परमेश्वर को , जो   अभेद में स्थित है। यह भेद में  अभेद  का त्यौहार है।  इस संक्रांति पर्व को समझो। 

 खिला दो वादियों को

 यह मिलने का मौसम है । 

बगीचों में फूलों  के भी

खिलने  का मौसम है।

खिला दो अपने दिलों को 

इस मौसम में तुम भी ,

यह मौसम है,

मिलने मिलाने का मौसम है। 

कहा है हुस्न ने..

परियों सा क्या पाया है तुमने । 

अब तुमको ही आना है,

करके न बहाना है।

कह रही श्री  मैं स्वयं 

अनुरोध हो रहा मुझसे । 

अब तो अब तो धरती को ,

सजाना है धरती को बढ़ाना है। 

ज्योतिष हो या वेद सब सब इस धरती का ज्ञान है। मकर स्वयं शक्ति है ज्ञान की । मकर राशि में प्रवेशन इस बात का प्रतीक है कि स्वयं वेद सूर्य ज्ञान पर आरूढ़ होना चाहते हैं । ज्ञान या विवेक स्वयं में संगतिकरण की सोचता है । इसलिए मकर संक्रांति स्वयं में अद्भुत अवसर है इस बात का कि हम स्वयं को संवारें। परहित का मतलब ही है हम सहयोग यह संयोग को प्राप्त हो रहे हैं। निर्देश है प्रकृति का कि स्वयं

 संवरोगे  तो सब संवर जायेंगे। 

जय जय महान। 

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२१  फेस   २  चैतन्य विहार, वृंदावन ,मथुरा

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