पिच्हत्तर वर्ष की आयु में,
वो है करता अचरज।
आंसू भरी आंखों को ,
शांत करता फिर ध्वज।
कभी उठता,कभी उड़ता,
कभी वायु में लहराता है।
फिर बीते दिनों की याद में,
वो शांत हो जाता है।
देख एकत्र भीड़ को,
वो सहसा सहम सा जाता है,
यह मंज़र फिर उसे ,
उन क्रान्ति के दिनों की, याद दिलाता है।
आते हैं अब कुछ पल को,
और वो कहते हैं मुझको अपना,
अपने तो वे थे,जो लेकर चले गए,
आंखों मे स्वतंत्र भारत का सपना।
एक समय वो था,जब राष्ट्र ध्वज कहने वाले एक पल भूल ना पाते थे,
झुक भी जाऊं मैं अगर जो,
जान पर अपनी खेल जाते थे।
दिए मुझे बलिदान,शांति और हरियाली के रंग,
अब भूल जाते हैं,
एक दिन मानो औपचारिकता पूर्ण करने को,
काल कोठरी से बाहर लाते हैं।
जब कुछ पत्ते गुलाब के मुझ में बांधे जाते हैं,
बिखरते हैं वो राष्ट्रगान के साथ हवा में,
तो फिर बलिदानी याद आते हैं।
आज आज़ाद हूं,पर कैसी विडम्बना है,
अपनी हर तरफ पराये - पराये से नज़र आते हैं।
राष्ट्र गुलाम था, पर हर ओर प्रेम था,
मुझे आज भी वो गुलामी के दिन याद आते हैं।
मुझे आज भी वो गुलामी के दिन याद आते हैं।
प्रस्तुतकर्ता:-
साजिद अहमद ख़ान
शिक्षक एवं प्रेरणा शिक्षक
M.Sc., Double M.A.,B.Ed
(+918881033310)