चिंतन की गहराई बनाम शुभचिंतन की भावनाएँ : यथार्थ व सत्य की खोज एवं भावना का संगम व संवेदना की रक्षा का द्वंद्व

                                                                                          हिन्दुस्तान वार्ता। डॉ.प्रमोद कुमार

मनुष्य के मस्तिष्क और हृदय के बीच चल रही पुरातन खींचतान को अगर कोई नाम देना हो, तो वह “चिंतन” और “शुभचिंतन” का द्वंद्व ही होगा। एक ओर विचार का ठंडा तर्क है, जो सत्य की चीरफाड़ करता है और हृदय को शीतल रखता है वहीं दूसरी ओर शुभचिंतन की गर्म भावना है, जो सत्य को ढककर भी किसी के आँसू पोछना चाहती है। यह वही संघर्ष है जिसमें एक सोचता है—“सत्य क्या है?” और दूसरा पूछता है—“किसी का दिल न टूटे, यही सत्य है।” दोनों सही हैं, दोनों गलत हैं—क्योंकि मनुष्य अभी तक तय नहीं कर पाया कि उसे इंसान बनना है या बुद्धिजीवी।

आज के युग में चिंतक हर गली में मिल जाएगा—कॉफ़ी मग लिए, लैपटॉप खोले, चेहरे पर गंभीरता की सिलवटें और दिमाग में विचारों का बवंडर। वह समाज की हर समस्या का समाधान दे सकता है—शर्त यह है कि समाधान केवल शब्दों में रहे। वहीँ शुभचिंतक कहीं मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा, किसी गरीब को एक रोटी देते हुए यह मानता है कि उसने ब्रह्मांड का संतुलन बचा लिया। एक सोचता है “प्रणाली बदलनी चाहिए”, दूसरा सोचता है “कम से कम किसी को भूखा न सोने दूँ।” और समाज दोनों से ही परेशान है—क्योंकि पहले के पास न समय है, न संवेदना; दूसरे के पास न योजना है, न विवेक।

चिंतन की गहराई में डूबा व्यक्ति सत्य की खोज में इतना नीचे चला जाता है कि वहाँ भावना का ऑक्सीजन समाप्त हो जाता है। वह तर्क की तलवार से हर आस्था को काटता है—कभी धर्म को, कभी परंपरा को, कभी प्रेम को भी। उसे लगता है कि भावना कमजोरी है, जबकि दरअसल वही भावना समाज की धड़कन है। दूसरी ओर शुभचिंतक का हृदय इतना कोमल होता है कि वह सच्चाई को स्वीकार ही नहीं कर पाता। वह झूठ को भी अगर मीठे शब्दों में कहा गया हो, तो फूल समझ लेता है। उसे लगता है “सकारात्मक रहना ही जीवन का उद्देश्य है।” परिणामस्वरूप, वह हर दुखद यथार्थ से आंख मूंद लेता है और हर कटु प्रश्न के उत्तर में “सब ठीक हो जाएगा” कह देता है।

व्यंग्य यह है कि आज का समाज दोनों के बिना भी नहीं चल सकता और दोनों के साथ भी परेशान है। अगर सब चिंतक हो जाएँ तो संवेदनाएँ मर जाएँगी, और अगर सब शुभचिंतक बन जाएँ तो सोचने की आवश्यकता ही खत्म हो जाएगी। सोचिए, यदि पूरा समाज केवल शुभचिंतक बन जाए—हर कोई केवल अच्छा सोचने लगे, बुरा देखने से इनकार कर दे—तो भ्रष्टाचार भी दया का कार्य बन जाएगा, अन्याय “व्यवस्था की विवशता” कहलाएगा और शोषण “जीवन की चुनौती”। वहीं अगर सब चिंतक बन जाएँ तो हर प्रेम, हर करुणा, हर आस्था का पोस्टमॉर्टम हो जाएगा। तब माँ की ममता “हार्मोनल प्रतिक्रिया” बन जाएगी, प्रेम “डोपामिनिक असंतुलन” और धर्म “सामाजिक नियंत्रण का यंत्र”।

आधुनिक समाज में चिंतन और शुभचिंतन का यह द्वंद्व हर जगह दिखता है—विश्वविद्यालय के शोध प्रबंध से लेकर सोशल मीडिया के पोस्ट तक। विश्वविद्यालयों में चिंतक पैदा होते हैं—जो लिखते हैं, बोलते हैं, बहस करते हैं, पर शायद ही कुछ बदलते हैं। वहीं सोशल मीडिया पर शुभचिंतक फलते-फूलते हैं—जो हर पोस्ट पर “Stay positive” या “God bless you” लिखकर मानवता की सेवा का अनुभव करते हैं।

चिंतक सवाल पूछता है, शुभचिंतक जवाब टाल देता है। चिंतक कहता है—“क्यों?” शुभचिंतक कहता है—“क्यों नहीं?” और इस संवादहीन दुनिया में दोनों का संवाद ही गायब है।

दरअसल यह द्वंद्व भारतीय मानसिकता की जड़ों में है। यहाँ हम सोचने से डरते हैं और महसूस करने से भी। इसलिए हम दोनों का आधा हिस्सा बनकर जीते हैं—न पूर्ण चिंतक, न सच्चे शुभचिंतक। हमारे चिंतन में तर्क कम और दिखावा अधिक होता है, और हमारे शुभचिंतन में करुणा कम और प्रचार अधिक। हम चाहते हैं कि लोग हमें “बुद्धिजीवी” कहें, पर हमारे विचार दूसरों की पसंद के दायरे से बाहर न जाएँ। हम “दयालु” कहलाना चाहते हैं, पर दया तभी तक जब तक उसके बदले में सम्मान मिले।

यही कारण है कि आज की दुनिया में “विचारक” और “शुभचिंतक” दोनों ही किसी न किसी रूप में आत्मसंतुष्टि के दर्पण में स्वयं को निहार रहे हैं।

आज हर कोई चिंतक बनने का अभिनय कर रहा है। टीवी डिबेट्स, यूट्यूब चैनल, पॉडकास्ट और फेसबुक लाइव — सब जगह विचारों की बाढ़ है। लेकिन इस बाढ़ में गहराई नहीं, केवल शोर है। चिंतन की जगह वाकपटुता ने ले ली है। बुद्धिजीवी बनने का सबसे आसान तरीका अब यह है कि आप किसी भी विषय पर जटिल शब्दावली में कुछ भी बोल दीजिए और श्रोताओं को भ्रमित कर दीजिए। लोग मान लेंगे कि आप गहराई में हैं। लेकिन यह गहराई पानी की नहीं, धुंध की होती है—जो जितनी दिखती है, उतनी होती नहीं।

वहीं शुभचिंतक भी अब भावनाओं के व्यापारी बन चुके हैं। हर दुखद घटना पर सोशल मीडिया पर “RIP”, “Prayers” और “Broken Heart” इमोजी डालकर उन्होंने अपनी संवेदनाओं का व्यवसायिक ब्रांड बना लिया है। कोई पूछे कि “क्या आपने उस व्यक्ति के परिवार की मदद की?” तो जवाब होता है—“मैंने उसके लिए प्रार्थना की थी।”

यथार्थ यह है कि न तो चिंतन ने समाज को बचाया, न शुभचिंतन ने। चिंतन ने मनुष्य को मशीन बना दिया और शुभचिंतन ने उसे नाटककार। दोनों ने सत्य से समझौता किया—एक ने तर्क के नाम पर, दूसरे ने भावना के नाम पर। पर सत्य तो दोनों के बीच की पतली रेखा पर खड़ा है—जहाँ विचार करुणा से मिलता है, और करुणा विवेक से। लेकिन वहाँ तक पहुँचने के लिए हमें पहले यह स्वीकार करना होगा कि चिंतन बिना संवेदना अधूरा है और शुभचिंतन बिना सत्य के कपट।

आज का युग “विचारों का” नहीं, “प्रतिक्रियाओं का” युग है। कोई घटना घटती है, और हम तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं—चाहे हमें तथ्य पता हों या न हों। चिंतन तो समय मांगता है, पर समाज अब धैर्यहीन हो चुका है। उसे “तुरंत सोचने वाले” चाहिए, जो हर प्रश्न का उत्तर पांच सेकंड में दे सकें। परिणाम यह है कि हमारे चिंतक भी ट्वीट-लंबाई के हो गए हैं, और शुभचिंतक “रील” की संवेदना में सीमित हैं। हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहाँ गहराई को “डिप्रेशन” और भावना को “ड्रामा” समझ लिया गया है। जो व्यक्ति गंभीरता से सोचता है, उसे लोग “नकारात्मक” कह देते हैं; जो हर चीज़ पर मुस्कुराता है, वह “आशावादी” कहलाता है। इस तरह हमने यथार्थ और भ्रम के बीच की रेखा मिटा दी है।

चिंतन की गहराई अक्सर अकेलापन देती है, क्योंकि सत्य भीड़ को पसंद नहीं आता। वहीं शुभचिंतन की भीड़ में सत्य गुम हो जाता है, क्योंकि वहाँ भावना ही सबकुछ है। चिंतक सच बोलने से डरता नहीं, पर शुभचिंतक सच सुनने से घबराता है। चिंतक कहेगा—“तुम गलत हो”; शुभचिंतक कहेगा—“कोई गलत नहीं होता।” और इसी “कोई गलत नहीं” की मानसिकता ने हमें वहाँ पहुँचा दिया है जहाँ अन्याय को भी सहिष्णुता कहा जाने लगा है।

अब सोचिए—यदि बुद्ध, कबीर, या आंबेडकर केवल शुभचिंतक होते तो क्या समाज बदलता? शायद नहीं। उन्होंने सत्य कहा, और सत्य हमेशा कष्टदायक होता है। किंतु केवल चिंतन से भी समाज नहीं बनता—वह तो बंजर भूमि पर बारिश की तरह है जो बिना बीज के झर जाती है। इसलिए बुद्ध ने करुणा जोड़ी, कबीर ने प्रेम जोड़ा, और आंबेडकर ने समता जोड़ी। यही संतुलन था जो उन्हें चिंतक भी बनाता था और शुभचिंतक भी।

आज की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि लोग सत्य को “नकारात्मक सोच” समझते हैं और झूठे सुकून को “सकारात्मक ऊर्जा”। अगर कोई कहे कि समाज में अन्याय है, तो लोग कहते हैं—“इतने नेगेटिव मत बनो।” अगर कोई कहे कि सब अच्छा है, तो लोग कहते हैं—“कितना पॉज़िटिव इंसान है!”

इस तरह हमने सत्य को उदासी और झूठ को प्रेरणा का रूप दे दिया है। यही शुभचिंतन की सबसे बड़ी त्रासदी है—वह वास्तविकता से बचने का सबसे सुंदर तरीका बन चुका है।

चिंतन की गहराई भी दोषमुक्त नहीं। उसकी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह हर चीज़ को विश्लेषण की कसौटी पर रखकर जीवन की सहजता को खो देता है। चिंतक को फूल में खुशबू नहीं, केवल रासायनिक संरचना दिखती है। उसे प्रेम में आनंद नहीं,केवल मनोवैज्ञानिक युक्ति दिखती है। वह इतना तर्कशील हो जाता है कि जीवन का आनंद ही समाप्त हो जाता है। यह बौद्धिक अहंकार धीरे-धीरे मनुष्य को संवेदनहीन बना देता है।

और इस प्रकार, एक ओर जहाँ शुभचिंतक “अंधी भावुकता” का शिकार होता है, वहीं चिंतक “अंधे विवेक” का।

दोनों के बीच का यह द्वंद्व केवल व्यक्ति का नहीं, सभ्यता का भी है। हमारी सभ्यता ने चिंतन को ऊँचा स्थान दिया—दर्शनशास्त्र, विज्ञान, तर्क—परंतु उसके साथ ही करुणा, प्रेम और संवेदना की धारा भी बहती रही। आज यह संतुलन टूट गया है। तकनीक ने चिंतन को तीखा बना दिया है, पर शुभचिंतन को कृत्रिम। अब भावनाएँ इमोजी में हैं, करुणा हैशटैग में, और सत्य ‘ट्रेंडिंग टॉपिक’ में।

इस पूरे परिदृश्य में सबसे हास्यास्पद बात यह है कि आज हर व्यक्ति स्वयं को दोनों मानता है—चिंतक भी और शुभचिंतक भी। वह किसी मुद्दे पर लंबा पोस्ट लिखता है—तर्क, आंकड़े, उद्धरण, और अंत में जोड़ देता है—“हम सबको प्रेम से रहना चाहिए।” यानी तर्क से शुरुआत और भावना से अंत। यह आत्मविरोध का युग है, जहाँ हम विचार से अधिक प्रभाव, और सत्य से अधिक छवि की परवाह करते हैं।

आख़िर में प्रश्न यही है कि क्या इस द्वंद्व का कोई समाधान है? शायद नहीं। क्योंकि मनुष्य की प्रकृति ही द्वंद्वात्मक है। वह सोचता भी है और महसूस भी करता है। पर समस्या तब शुरू होती है जब वह एक को श्रेष्ठ मान लेता है। चिंतन की गहराई और शुभचिंतन की भावना दोनों तभी सार्थक हैं जब वे एक-दूसरे को पूरक बनें, प्रतिस्पर्धी नहीं।

सत्य केवल तर्क में नहीं है, न ही केवल करुणा में—वह वहाँ है जहाँ तर्क संवेदना को चोट न पहुँचाए और संवेदना सत्य से भागे नहीं। लेकिन इस संतुलन की खोज में समाज या तो विचारशीलता के बर्फ़ीले पर्वत पर जम गया है, या शुभचिंतन की मिठास में सड़ गया है।

हमने सत्य को असहजता मान लिया है और झूठ को सहूलियत। हम विचार के नाम पर भावनाएँ कुचलते हैं और भावना के नाम पर विचारों को गला घोंटते हैं।

शायद अब समय आ गया है कि हम यह मान लें कि “गहराई” और “भावना” का यह संघर्ष समाप्त नहीं किया जा सकता, पर उसे समझा जा सकता है। चिंतक अगर थोड़ी करुणा सीख ले और शुभचिंतक थोड़ी विवेकशीलता, तो शायद सत्य और संवेदना दोनों बच जाएँ।

क्योंकि अंततः जीवन केवल विचार नहीं है, और केवल भावना भी नहीं—वह उन दोनों के संगम की वह नदी है, जो बहती तो है विरोधी दिशाओं में, पर सागर में मिलकर एक ही हो जाती है। प्रकृति ही सत्य है। मनुष्य प्रकृति का एक अमूल्य उपहार है। इसलिए प्रकृति का अनुसरण ही सत्य व प्रेम की प्राप्ति तक पहुंचाता है जो जीवन के मूल्य को सही मायने में समझाता है।

लेखक : डिप्टी नोडल अधिकारी,MyGov

डॉ.भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा हैं।