✍रविन्द्र दुबे
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छठ पर्व में सूर्य उदय और अस्ति की पूजा-अर्चना के माध्यम से प्रकृति और जीवन के उतार-चढ़ाव को सहज ढंग से स्वीकार करने की सीख दी जाती है।इसमें जीवन के उतार चढ़ाव, सुख -दुःख, ऋतु परिवर्तन के संदेश निहित हैं।
जैसे सूर्य उदय होता है ,वैसे ही फिर अस्त भी होता है। अगर एक सभ्यता समाप्त होती है तो दूसरी जो प्राणी जन्म लेता है ...वह मरता भी है।और वो फिर जन्म लेता है..ये प्रकृति का क्रम है। जो ढलता है वो फिर खिलता है।जो डूबता है वह फिर उबरता है। यही चक्र ,छठ का है। यही प्राकृतिक सिद्धान्त छठ का मूल सिद्धान्त है। यही भारतीय संस्कृति है। छठ इसी प्रकृति चक्र और जीवन चक्र को समझने का पर्व है। छठ अंत और प्रारम्भ की समग्रता को समान भाव से जीवन चक्र का हिस्सा मानना है। पूजा दोनों की होनी है ,प्रारम्भ क़ी भी और अंत की भी।छठ प्रकृति चक्र की इसी शाश्वतता की रचना है।छठ सिर्फ महापर्व नही बल्कि , छठ एक जीवन पर्व है। जीवन के नियमों को बनाने का संकल्प। सात्विकता
का सामूुहिक संकल्प, प्रकृति का हनन रोकना, गंदगी, काम, क्रोध, लोभ को त्यागना, छठ है। सुख सुविधा को त्यागकर कष्ट को पहचानने का नाम ,छठ है। छठ प्रकृति के हर उस अंग की उपासना है जिसमें कुछ कर गुजरने की,कभी निराश न होने की,कभी हार न मानने की, डूब कर फिर खिलाने की,गिरकर फिर उठने का हठ है।कठिन छठ व्रत बिना स्वास उपासना के संभव नही है। सूर्योपासना स्वास नियन्त्रण से ही संभव है। नियंत्रण तो खान पान का भी है। अन्न जल त्याग कर दूसरे दिन एकांत में खरना ग्रहण करने का अनुशासन है।जब सूर्य समाधि में ब्यक्ति स्वयं निर्जल होकर भगवान भास्कर को जल अर्पित करता है तो प्रकृति और ब्यक्ति के अतुल्य समर्पण के दर्शन होते है।इस दर्शन से यह भरोसा उत्पन्न होता है कि जब तक छठ है, तब तक प्रकृति ही ईश्वर है।नदियों से मिले जल और सूर्य से मिली किरणों ने हमेशा से मानवता को पाला और पोसा है। बड़ी बड़ी सभ्यतायें और संस्कृतियां नदियों और सूर्य के परस्पर समन्वय से ही विकसित हो पाई है। इस महापर्व के माध्यम से पूरी की पूरी उत्तर भारतीय संस्कृति माँ गंगा,यमुना,सोन,घाघरा,सरयू,गोमती,गंडक न जाने और कितनी असंख्य धाराओं , जलासयों , पोखरों, तालाबों की ओर अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रही होती है। यह हमारे संस्कृति का दर्शन है।
इस सामूहिक कृतज्ञता को दर्शाना ही हमारा उत्सव है,पर्व है। यह कृतज्ञता हम अपने मेहनत से उगाये केले,गन्ने और मन से बनाये खरना के खीर और ठेकुआ के लोकमन के माध्यम से दर्शा रहे होंगे। नदियों और सूर्य की तरफ मुड़ता समाज अपनी पुरातन सामाजिक चेतना को जगाता रहता है। जीवन शैली में होने वाले बदलावो से अपनी संस्कृति चेतना पर आंच नही आने देता।अक्षुण्ण लोक संस्कृति ही समाज के संगठित स्वरूप का निर्माण करती है ,और उसे समय समय पर विघटन से बचाती है । सब प्रकृति के सामने नतमस्तक होते हैं।कौन किस रंग का है, किस जाति का है, किस वर्ण से है और कितना अर्थ लेकर जीवन यापन कर रहा है ,यह सब सूर्य के सामने निरर्थक हो जाता है। छठ पूजा न सिर्फ सामाजिक संवाद कराती है, अपितु समाज में आपसी आकर्षण बढ़ाकर समरसता लाती है। जैसे सूर्य की किरणें पृथ्वी पर प्रकाश फैलाने में कोई भेदभाव नही करती , वैसे ही छठ का यह पर्व संतति में भेदभाव नही करने का संदेश भी देता है ।तभी तो एक दूसरे का दुश्मन भी आपस में छठ पूजा करने में तन ,मन और धन से पूरा सहयोग करते है।
हमें जरूरत है छठ जैसे महान पर्वों को संभालने की,उन्हें अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने की, लोक मानस के इस महापर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाने की। हमें जरूरत है तो छठ में निहित तत्वों के मूल अर्थों को समझने की, उन अर्थों के ब्यापक बिस्तार की,उस बिस्तार को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने की,लोक पर्व के माध्यम से सशक्त समाज और जाग्रत राष्ट्र को बनाने की।छठ के माध्यम से हमारी माँ गंगा की संस्कृति को विश्व की सबसे सर्वश्रेष्ठ संस्कृति बनाने की।