✍डॉ. मंजू गुप्ता
आज सुबह अखबार खोला,,ऐसा लगा जैसे सामाजिक और मानवीय मूल्यों के पतन की पराकाष्ठा हो चुकी है। इस तरह की हर खबर के पीछे एक मानसिक विकृति की छाप दिखाई पड़ती है,,नारी देह को भोग्या समझना,,नारी को हेय समझना,,नारी के इनकार को अपना अपमान समझना।
,,,कितनी ओछी सोच हो गयी है हमारे समाज की।
दूसरी महत्वपूर्ण बात ,,ये है कि सोच आज पैदा नहीं हुई है...समाज की सोच बनना बिगड़ना एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है। सैंकड़ों वर्षों की मानसिक गुलामी ने हमारे विवेक को दिग्भ्रमित कर दिया है और नारी को हमने अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक मान अपमान से जोड़ दिया ,और नारी की प्रताड़ना शुरू कर दी है।
आखिर क्यों हमें अपनी ही विकृत मानसिकता को सुधारने के लिए कानून एवम दण्ड प्रक्रिया का सहारा चाहिए।
क्या हम मानसिक रूप से इतने विकलांग हो गए है कि अपनी सोच को बदलने के लिए दूसरों के सहारे की आवश्यकता है। स्वत् स्फूर्त मानसिक उत्थान क्यों जन्म नही लेता हमारे भीतर।
इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर समझ आता है मुझे ,कि हम सबको अपने पारिवारिक ताने बाने में ,,अपनी सामूहिक सोच में,,अपने पारिवारिक मूल्यों में सनातन सोच को प्रमुखता से स्थान देना होगा ।
जिसे हमने आधुनिकता और दिखावे की अंधी दौड़ में पीछे छोड़ दिया है।
(डॉ मंजू गुप्ता की लेखनी)