श्रीराम-जानकी विवाह का तात्पर्य(श्रीराम-जानकी विवाह उत्सव पर विशेष)डॉ विनोद शर्मा ज्योतिष एवं पराविद।

 



हिन्दुस्तान वार्ता।

   राम जानकी विवाह प्राणों का संगमन कर्म है । धर्म की मूर्ति जानकी जब किसी पुरुष का  वरण करती है तो वह स्वयं शक्ति रूप में अवतरित होती है ।  अवतरित शक्ति के रूप में पृथ्वी तल पर उनका आगमन इस बात का द्योतक है कि पृथ्वी की शक्ति उभर रही है । ज्ञान के क्षेत्र में स्वयं शक्ति का ही काम है विशेषकर   क्रिया पक्ष में क्रिया के लिए शक्ति समागम आवश्यक है। यद्यपि अध्यात्म आत्म रूप है और इसी से सारा स्वरूप भी निर्धारित होता है पर प्राण प्राण से परिचित  हों इसलिए विवाह प्रक्रिया में जाना होता है । अग्नि शक्ति की साक्षी में। अग्नि शक्ति है कुंडलिनी है यह और यह प्रकाश रूप में प्राणों में निवास करती है । योगी के लिए कोई क्रिया है और न  क्रिया का भेद।पर जागतिक स्तर पर सब प्रकट रूप में लीला रूप में दिखाना होता है । राम जानकी विवाह भी एक लीला है । विवाह अंतर्मन की वस्तु है। पुष्प वाटिका में पुष्प -चयन के समय ही सीता राम का प्राण  प्रवेशन कर्म संपादित हो गया था । यह सूक्ष्म प्रक्रिया है। योग शक्ति है जिसे योगी ही समझता है । संसार के व्यक्ति को बस इस ज्ञान को बाहर दिखाने के लिए ही विवाह का रूप रचा जाता है। 

इस संबंध में उत्तरा उत्तरा का कथन है कि मैं स्वयं प्राण की संगमनी शक्ति बनकर प्रकट  हूँ प्राणों में । मुझ में और कुंडलनी  शक्ति में भेद नहीं । अवतार प्रक्रिया में  मैं ही स्वयं सीता ,राधा   रुकमणि आदि शक्ति के रूप में प्रकट होती हूँ। रुकमणि ब्रह्मचर्य की मूर्ति वैखानस  व्रत का पालन करने वाली उत्तम ग्रहणी बनने के योग्य  थी । इसलिए कृष्ण को प्राप्त हुई। विद्या और अविद्या सब सब कुछ ज्ञान कहलाता है पर  अविद्या जब ज्ञान पर आरूढ़ होना चाहती है तो सत्यानाश हो जाता है। राम जानकी विवाह में यही खासियत रही सीता ने अविद्या पर तो क्या ज्ञान पर आरूढ़ होने का साहस नहीं किया। मर्यादा को उन्होंने निभाया। प्रत्यंचा ( डोरी ) धनुष पर चढ़ाने से पहले ही उससे छिटक गई अलग हो गई थी। मर्यादा है  यह। मर्यादा रखनी पड़ती है धनुष भंग नहीं हुआ था वह तो प्रत्यंचा चढ़ाने से पहले ही वह छिन्न - भिंन्न हो गया था। भंग होना एक क्रिया है पर यह सब जानकर नहीं स्वयमेव हुआ। प्रत्यंचा को चढ़ाना था पर यह  बात जानकी ही समझती है कि कर्म किसके द्वारा संपादित होना है। 


जानकी हो जन जन की प्रिय कहलाती हो

 रघुनाथ श्री राम की पत्नी तुम कहलाती हो। 

धनुष का ज्ञान  रखती तुम

 धनुष का रूप तुम ही  थी

किया संधान रघुवर में तुम स्वयं प्रकट हो गई थी। 

चढ़ाई प्रत्यंचा प्रभु ने

हुआ  टकार(tankar) शब्दायित  बजा घनघोर आंगन में

 गगन हो गया शब्दायित।

लेकर हाथ में माला

 प्रभु को पहनाई तुमने 

किया गुणगान देव ने 

कथा न रची है तुमने। 

यह कथा स्वयं रची प्रभु ने है

 जो स्वयं जगत के रक्षक हैं

सब हो गया स्वयं ही 

प्रभु प्राण रक्षक हैं।

अर्चना का स्वर  गूजा है  चहूँ ओर आरती प्राणों की स्वयं हो  रही

 घनघोर । 

अब प्रभु मिलन की आस

 स्वयं सुख की खान बन गयी

आ गयी श्री जानकी 

प्रभु के हृदय में बस गयी। 


 धनुष का  संपूर्ण ज्ञान सीता से राम को पहले ही दिया गया था सीता प्रकाशिनी  शक्ति है। ज्ञान की प्रकाशिका है । जानकर धनुष यज्ञ में उतरी है । आत्मा ने आत्मा का वरण किया  है। ज्ञान के परिक्षेत्र में जो भी कुछ है वह परमात्मा द्वारा पहले से ही निर्धारित होता  है। एक प्रक्रिया है ज्ञान की धरती पर जितने भी अवतार हुए हैं सृष्टि की उस योजना में परमात्मा की इच्छा बनकर  बस।  धरती के प्राणियों को मार्गदर्शन तथा धर्म की स्थापना के लिए ही भगवान का अवतार होता  है। ज्ञान तो ज्ञान ही होता है।उसका स्वरूप तो योगी ही समझता  है। प्रकट हो या अप्रकट दोनों ही रूपों में ज्ञान को अपना काम करना है । ज्ञान का क्रिया रूप में अवतरित होना ही ज्ञान  की पराकाष्ठा कहलाती  है। ज्ञान  भेदभाव नहीं करता सीता हो राधा हो या   रुकमणि कोई भी शक्ति हो वह समय की आवश्यकता के हिसाब से किसके साथ जुड़कर काम करती है। सब सब उस परमात्मा द्वारा ही जिसे महदब्रह्म कहा गया है निर्देशित होता है। कारण ब्रह्म के नजदीक जाकर देखें तो इस सृष्टि का इस धरती का सब सब संचालन उस शक्ति के द्वारा ही हो रहा  है। बीज रूप में कारण रूप में जो भी कुछ है वह परमात्मा के हाथ में है । हम कितना भी जोर लगा लें पर हम सब की डोर ईश्वर थामे हुए है। हमें तो बस समर्पित हृदय होकर उस ईश्वर के साथ जुड़ना है। राम,कृष्ण आदि  जितने भी अवतार  हुए हैं  वे और  कुछ नहीं ईश्वर की इच्छा का ही रूप है । प्रकृति जिसे चाहती है उसका वरण करती है और वरण करने  का  हेतु बस रक्षा ही है। सीता हो या राधा सब प्रकृति की शक्ति हैं। स्वयंवर का अर्थ प्रकृति द्वारा पुरुष को वरण करना  कहलाता  है।जीव नहीं जानता कि उसका जीवन साथी कौन है  ? पर सब कुछ पहले से ही निश्चित है। धरती की व्यवस्था को रूप देने के लिए अवतार है और इसी बात को ध्यान में रखकर यह सब कुछ होता है। 


प्राचार्य जसवंत सिंह भ दौरिया डिग्री कॉलेज, कोसी खुर्द, भरतपुर रोड ,मथुरा । 


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