हिन्दुस्तान वार्ता।
अब सब कुछ सूर्य ही है जो स्वयं स्वयं राकापति और शाकापति सब कुछ है। शाकापति का मतलब है- सूर्य शक्ति। यह नवग्रहों का ही नहीं स्वयं स्वयं बारहआदित्य और स्वयं "नवमो विष्णु : " कहकर विष्णु रूप है। द्वादश आदित्यात्मक सूर्य का ही प्रताप है जो धरती पर हम किरणों के रूप में बिखर रहा है। कालदर्शक है यह सूर्य और काल का अभिमानी भी है। अब इस काल ईश्वर को पहचानने का जो उपक्रम है इस संक्रांत काल का ही नियम है निषेध है उस प्रकृति का जो विरोधात्मक है। प्रकृति यहाँ स्वयं इस ज्ञान का परिचय देने को खड़ी है यह वह समय है। सूर्य पृथ्वी के अति निकट अपनी किरणों का विस्तार करते हैं यह वह समय है । काल- वाची परमात्मा का रूप स्वयं यह नारायण सूर्य स्वयं ज्ञान रूप है। ज्ञानत्मिका शक्ति स्वयं सूर्य इस रूप में धरती पर अपने अनुज नहीं, पुत्र से मिलने के लिए आते हैं। यह चौथा या पांचवाँ या कोई एक घर नहीं है इस शनि का सब सब घरों में रह रहे इस शनि से मिलने का यह दिवस का प्रताप है कि पूरे मास इस धरती पर शनि की व्यवस्था को रूप देने के लिए सूर्य इसके साथ निवास कर ते हैं। शनि का क्रोध महाभयंकर है। पर मर्यादा है ज्ञान की, धर्म की ,सत्य की जिसकी बदोलत वह पृथ्वी पर न्याय का देवता बना है स्वयं अपनी योग्यता से। अब अपने पिता के हितैषी को भी खयाल में रखता है और अपने मित्र के हितैषी का भी खयाल रखता है । कर्म का खेल है, खेल है उस कि उसे विधाता का कि उसे धरती पर रहना पड़ा सब कुछ ज्ञात होकर भी। न्याय का रूप ही है यह कि वर्ष में एक बार शनि के साथ रहने का मौका अवश्य मिलता है। यह शनि की न्यायप्रियता ही परम आदर्श है जो प्रकृति ने प्रदान किया है। विज्ञ पाठक इस ज्ञान को अवधारणा में लाएं कि इस धरती पर तो क्या इस समस्त ब्रह्मांड में कुछ तो अनोखा है, जिसे हम ईश्वर कह देते हैं। अन्यथा सत्य-न्याय के स्वरूप किसी को भी इस धरती पर रहने का मौका न मिले। सूर्य के समकक्ष नहीं तो पिता की दौलत को संभाले क्या शनि सूर्य से कम हैं। शनि उनकी विद्या है, जिससे ज्योतिष और ज्ञान के क्षेत्र में हाहाकार मचा रहे हैं। न्याय की सत्ता स्वयं उनके हाथ में है। बहुत सी बातें हैं जो प्रकट न करने की हैं, पर इतना अवश्य है कि प्रकृति जिसे चाहती है उसे ही प्रतिष्ठा दिलाती है। अब इस प्रकृति को नहीं, स्वयं शक्ति- संपन्नता को देखो कि धनु से मकर राशि में प्रवेशन का समय सूर्य का स्वयं में सौभाग्य प्रदान करने वाला है इस शनि को ही नहीं इस धरती के शनि- भक्तों को भी। शनि जिनकी राशि का मित्र है उनका तो ठप्पा लगा है शनि की प्रसन्नता के सौदे पर। अब इस व्यवस्था को स्वयं समझ सकते हैं कि यह शनि किस प्रकार अपने पिता से लाभ प्राप्त करता है। सवाल इस बात का नहीं कि शनि छाया के पुत्र हैं या स्वयं सूर्य की अंत्यज दोष की हेतुता ( वजह ) से उपेक्षित हो। बात मुख्य है कि जिसे प्रकृति अपना वरदान देती है उसे अपने संरक्षण यानी सुरक्षा में रखती है । लुढ़काया था बहुत पर जब अपनाया तो फिर कंगाल से मालामाल कर दिया । यह शनि के मालामाल होने का दिन है। अब समझें इसे अपनी भाषा में।
इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं इसलिए इसे "मकर संक्रांति" के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि सूर्य देव अपने पुत्र शनि देव से मकर संक्रांति के दिन मिलने आते हैं और पूरे एक माह उनके घर निवास करते हैं। शनि देव और उनकी माता छाया के घर का दहन वरदान का कारण बना। हालांकि सूर्य देव अपने पुत्र शनिदेव को जिस भाव से देखते हैं अच्छा सवाल नहीं है। शनि सूर्य की दृष्टि आपस में हानिकारक है। अपनी पत्नी छाया से अलग करने के कारण सूर्य देव कुष्ठ के रोग से निवृत्ति ( श्राप विमुक्ति के लिए ) जिसने व्रत रखा वे यमराज थे। यम की कृपा से नहीं, पिता के प्रति नरम होने की वजह से कुष्ठ रोग से मुक्त होने का लाभ मिला । पर न्यायप्रिय शनि ने अपने पिता के स्वागत में बचे हुए तिलों से ही सम्मान किया। अभिशप्त शनि का क्रोध नहीं था, यह क्रोध था शनि के पिता सूर्य का जो उनका घर जलकर राख हुआ। पर देव- पूजा, मंदिर सब सब मे वस्तु पदार्थ की आवश्यकता होती है। शनि ने यह यथा- सामर्थ्य बचे हुए तिलों से ही स्वागत करना अपना परम धर्म समझा।
धर्म- सत्य के के बल पर ही शनि पिता से दूर होकर भी सुख से रहते हैं। शनिदेव से प्रसन्न पिता सूर्य ने उन्हें घर प्रदान किया। मकर संक्रांति पर उनतीस साल बाद शनि सूर्य की युति और चार महासंयोग का यह अवसर है जो इस वर्ष आया है। काले तिल का दान श्रेष्ठ माना गया है। सूर्य देव दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं। जुड़ी मान्यता के अनुसार सूर्य देव स्वयं शक्ति- संपन्न होने पर भी अपनी सांठगांठ बनाने के लिए उनके घर पधारने का कारण जो भी हो पर सूर्य की किरणें इस दिन सीधी शनि पर पड़ती है और पूरे माह रहती हैं।
संतान वही है जो अपने पिता की प्रतिष्ठा को बढ़ाए। अपने पिता के आदर में उन्होंने कोई कसर न छोड़ी है। उनकी विद्याओं का उन्होंने आदर किया है। अब शनि विद्या सूर्य -ग्रहीत विद्या है सूर्य की ऐसा नहीं यह विद्या इन्हें स्वयं श्री ने दी है। अब न देखो किसी को सूर्य के के ज्ञान को भी न परखो। परखो तो स्वयं को कि हमने क्या पाया है ? यह दिन स्वयं के आत्मावलोकन का दिन है । स्वयं सूर्य जो प्रकृति के गुरु हैं वह स्वयं धनु राशि से मकर में प्रवेश कर ज्ञान पर आरूढ़ हो रहे हैं, ज्ञान के अनशन पर बैठे हैं। यह सब सब कुछ देने की तैयारी में हैं। शनि के राख हुए घर को उन्होंने पुनः दिलाया है इस प्रकृति से। प्रकृति क्या नहीं दे सकती यह सूर्य ही जानते हैं। शनि का सब कुछ खोया फिर से प्राप्त हुआ। कहानियों का सार यही है कि प्रकृति को पहचानो। पर इतना अवश्य है कि गुरु के आदेश के बिना प्रकृति के पैर नहीं पड़ते हैं। अब गुरु को मनाओ और गुरु- पुत्र को भी। यह अवसर है मनाने का। काले तिल दान करें किसी भी रूप में । लड्डू बनाकर भी दान कर सकते हैं। जब शनि का सब कुछ नष्ट हो गया कुछ न बचा तब ढूंढने पर बचे तिलों को ही पिता को खिलाकर उनका सम्मान किया था। अब कठोर परीक्षा से गुजरे शनि को पिता का आशीर्वाद मिला और फिर अपने घर में बैठे। नवग्रहों में शनि का बैठना या स्थान होना एक व्यवस्था है contronling (नियंत्रण ) की, जिससे वे शासन की बागडोर प्रभु आदेश से संभालते हैं। पर निजी कक्ष नहीं घर तो जरूरी है ।
"प्रकृति अनुकूल तो क्या करेगा शू ल।" प्रकृति की अनुकूलता में जी रहे शनि स्वयं परम आदर्श हैं ज्ञान के, न्याय के और सत्य के कि उनके दरबार में कोई खाली न गया। इस समय वे स्वयं न्याय ही नहीं धर्म रक्षक के रूप में स्वयं उस ज्ञान को रूप दे रहे हैं जो अव्यक्त है स्वयं वर्तमान शक्ति है अवतार की, उसे सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं । यह व्यवस्था स्वयं प्रकृति ने ईश्वर की आज्ञा से प्रदान की है। अब शनि या सूर्य सूर्य नहीं सब मिलकर एक हो गए हैं प्रकृति को संभालने के लिए। अब निकट भविष्य में सब कुछ हो जाना है । वैज्ञानिक या ज्योतिषविद कुछ भी हाँकते रहें पर ज्ञान तो ज्ञान ही है सब कुछ और यह संकेत है इस बात का कि अब खोना नहीं होना है। जरूरत है सावधानी की कि प्रकृति के आदेश को मान उसे संवारने में सहयोग दें। पाना है तो देना सीखो । यह ज्ञान है इस वाक्य का जो इस रूप में प्रदत्त है। "पूर्णा दर्भिपरा " इत्यादि मंत्र का कि अपनी तरफ से पूर्ण रूप से मन सेआहुति दो तभी तुम्हें इस धरती का कुछ मिल सकता है। पूर्णाहुति के इस मंत्र में कहा है कि मैं यजमान यज्ञ रूप ब्रह्म को यह आहुति प्रदान करता हूँ पूरी तरह से भरकर आप वापस में मुझे पूरी तरह से प्रदान करें । अब देने- लेने का समय है यह पूरे मास का। यहाँ प्रकृति का अपना बस यही लक्ष्य या ध्येय रूप है यह वाक्य कथन इसे समझो और सुख पाओ।
जय जय महान।
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