हिन्दुस्तान वार्ता।
इन अमावस्याओं का रहस्य क्या है ? कभी याज्ञवल्क्य की सभा में महर्षियों द्वारा पूछा गया था । तब याज्ञवल्क्य ने कहा था कि सूर्य नहीं कुछ , सूर्य तो स्वयं चंद्र के भाव में स्थित रहकर ही सब कर पाता है। फिर यह चंद्र क्या है , यह चन्द्र है- सोम तत्व। सोम तत्व का विकास की कुंडलिनी शक्ति है।
कुंडलिनी शक्ति जगती है तो सोम का ही वर्धन करती है। इस सोम से ही नाड़ियों की शक्ति का विकास होता है। नाड़ियों का जाग्रत होना ही विकास है । जितनी भी नाड़ियाँ वे सब की सब इडा और पिंगला का ही रूप हैं। इडा सूर्य नाड़ी और पिंगला चंद्रनाड़ी है। अब इस पिंगला में सूर्य का गुण कहाँ से आया ? यह प्रश्न था इन महर्षियों का। उत्तर मिला कि इडा तो शक्ति है स्वयं, पर पिंगला जिसे चंद्र नाड़ी कहते हैं यह सूर्य की शक्ति से ही जाग्रत होती है और प्रकाश करती है,पर प्रकाश यह स्वयं इस नाड़ी का ही होता है।
वैज्ञानिक नहीं समझ पा रहे हैं कि चंद्रमा कैसे प्रकाश दे पाता है? चंद्रमा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित है ,ठीक है पर इसका प्रकाश कहाँ से आया? ऐसी क्या चीज है जो सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होती है ।
अध्यात्म ईश्वर का विषय है। ईश्वर से मतलब है ईश्वरी शक्ति। ईश्वरी शक्ति को जाग्रत करने के लिए ही साधना आवश्यक है । सूर्य विद्या कहती है कि सब कुछ शरीर में है। सूर्य और चंद्र जो नाड़ी हैं जब सुषुम्ना में प्रवेश करती हैं तो कुंडलिनी जागरण की प्रक्रिया का प्रारंभ होता है ।
अब यह कुंडलिनी चक्र भेदन ही नहीं इससे भी ऊपर निकल जायें तो समझो कि इन नाड़ियों का ज्ञान शुरू होता है।
होता क्या है, साधक चक्रों के चमत्कार में फसकर स्वयं को परमेश्वर समझने लगता है पर ईश्वर कृपा ही समझो जो इनके आगे जा पाता है ।आज्ञा चक्र को ही अपने ज्ञान की इतिश्री मान लेता है । पर आज्ञा चक्र के ही बाद सब कुछ है । नाद का प्रारंभ यहीं से होता है । वंशी निनाद , भेरी, मृदंग जितने भी नाद हैं वे सब यहीं से शुरू होते हैं । पर नाद से नादांत की स्थिति ज्ञान की है। यहीं से वास्तविक ईश्वर का ज्ञान होता है । यह सब ज्ञान मौन रूप ही होता है। पर यह किसी विरले एक दो को ही मुश्किल से प्राप्त होता है। चमत्कार तो पहले दूसरे चक्र पर ही होने लगते हैं। बस इन चमत्कारों को ही दुनियाँ में दिखाकर वाहवाही लूटना फिर कहाँ बढ़ाना रहा लुटना रहा प्रशंसा के चक्कर में। पर जो सब कुछ पाकर भी मौन रहता है वही वास्तव में पाता है ।
यह मौन वाणियों का मौन ही नहीं इंद्रियों का भी मौन कहलाता है। इंद्रियाँ विरम हो गयीं भोंगों से । ईश्वर चिंतन की धारा में उसे विश्राम ही नहीं है । प्राकृतियाँ अपना स्वरूप बता रही हैं ज्ञान करा रही हैंअपना। महर्षि कण्व के आश्रम में स्वयं प्रकृतियों का खजाना था । शकुंतला की परिवरिश कण्व आश्रम में होना प्रकृतियों का ही सब कुछ था। वहाँ न था अंगराग भी । अंगराज तो स्वयं औषधि तत्व के रूप में मौजूद प्रकृति की वनस्पतियाँ थीं। उन्हीं से और उसकी सखियाँ स्वयं को शृंगारित करती थीं। प्रकृति पेलवा शकुंतला का अभिधान शकुनि यानी पक्षी समूह से पालित। वह शकुंतला ही हमारे भारत को दुष्यंत के पुत्र के रूप में भरत को दे सकी। भरत के नाम से ही इस देश को भारत कहा जाता है ।
अब रही बात इस सोम की जिसे चंद्र नाड़ी का विकास कहते हैं । सोम का जिह्वा पर टपकना ही सोम स्रवण कहलाता है। इस सोम स्रवण के ही महत्व को सोमवती अमावस्या या मौनी अमावस्या बतलाती है और पूरे मास सूर्य का ही तो ज्ञान प्राप्त करना होता है संक्रांति के इस रूप में ।
इस रूप में देखें तो यह दिन अमावस के ज्ञान की परिपूर्णता का दिन कहना चाहिए । इस दिन स्नान के बाद किसी पूज्य कुछ खिला कर दान दक्षिणा देकर मौन खोला जाता है । यह क्रिया प्रातः काल की है। जितने भी ज्ञान हैं सूर्य में समाहित हैं। सूर्य शक्ति का पूर्ण प्रकाश सोम शक्ति के रूप में होना ही इस ज्ञान का महत्व है यह इस अमावस्या का। जय श्री महान।
२१ चैतन्य विहार फेस २,वृंदावन, मथुरा।
चलित दूरभाष: ७३००५२४८०२