श्री गणेश (संकष्टी)चतुर्थी व्रत " पर विशेष : विनोद शर्मा ,ज्योतिष एवं पराविद।

 


हिन्दुस्तान वार्ता।

सृष्टि के आदि में जहाँ सब कुछ और सब कुछ अवशिष्ट न रहता है तब स्वयं शिव- शक्ति "महाकाली" स्वयं उस परमात्म- ज्ञान को " गणेश विद्या" के साथ जोड़कर प्रकट करने के लिए उत्साहित होती है ।

 " कामदेव" कामनाओं का रूप स्वयं स्वयं श्री भगवान श्री भोलेनाथ परमेश्वर की आज्ञा रूप होता है। दृष्टि रूप है यह काम । इस काम को ही पहले पूजा जाता है। इसलिए

" कामात्मिका  शक्ति " स्वयं स्वयं मूलाधार  में स्थित "गणेश विद्या" के नाम से ख्यापित  है । इस विद्या के मालिक स्वयं "श्री गणेश" हैं । इसलिए गणेश प्रथम पूज्य  हैं। सृष्टि विद्या की वजह से नहीं, अपितु कामनाओं के हेतु भी यही हैं । 

कामनाएं जहाँ उपजती हैं वह स्थान ही लिंग प्रदेश में जिसे " कुहू नाड़ी"  कहा गया है का ज्ञान ही कामाख्या का काम प्रदेश  या कामरूप का ज्ञान है। यहीं से सारे ज्ञान उपजते हैं।  कामात्मिका शक्ति चाहें  वह" राधा" या " सीता"  सब -सब "क्लीं " का ही रूप हैं। इस  क्लीं को जाने  बिना श्याम की वंशी नहीं बजती । क्लीं की ध्वनि ही स्वयं वंशी है। इसलिए क्लीं को जाने बिना हम न तो साधना के क्षेत्र में और न ही जीवन या ईश्वर  ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ पाते हैं। इसलिए श्री गणेश को जानना मुख्य हैं सृष्टि विद्या के मालिक होने की वजह से । संकष्टी व्रत यानि गणेश चौथ के रूप में श्री गणेश की पूजा की दृष्टि से पूर्ण करने का व्रत है । व्रत है यह इंद्रियों का जो स्वयं सृष्टि की प्रेरणा बनती हैं ,और संतान को जन्म देती हैं। 

ज्ञान का मालिक सूर्य या शिव इस सृष्टि -ज्ञान को पैदा करता है । सूर्य स्वयं गुरु हैं मालिक हैं सभी विद्याओं के । शिव यानि सूर्य के बिना कोई भी ज्ञान पूर्णता को प्राप्त नहीं करता । सूर्य की किरणों में सब सब अलग-अलग काम के लिए जीवन मृत्यु का संबंध सब सूर्य से है । सूर्य का एक  नाम "यम " भी है । क्योंकि वह यम शक्ति से ही जगत का शासन करते हैं । यम प्राणों का नियमन है । इसलिए प्राणों पर नियंत्रण ही नहीं , प्राण रूप में गर्भ में स्थापित संतान को जीवन या उत्पत्ति रूप में किरण बनकर आते हैं । गणेश स्वयं विद्या में शिव से कम नहीं है। इसलिए गणेश स्वयं मूलाधार में स्थित ज्ञान के मालिक हैं। 

 यह मूलाधार का ज्ञान ही सृष्टि का ज्ञान कहलाता है। ज्ञान का क्षेत्र जहाँ से विकसित होता है उसी को मूलाधार कहते हैं। यही" कुहू नाड़ी" का स्थान है जहाँ से क्लीं का ज्ञान उपजा था। 

श्रीकृष्ण को इसका ही ज्ञान था । इसी को वंशी -ध्वनि के नाम से जाना जाता है । सृष्टि- विद्या का मूल स्वयं उपादान  रूप में परमात्मा शिव की शक्ति महाकाली के ज्ञान का ही रूप होता है । सृष्टि के सारे उपादानों को वह अपने अंदर निहित किए हुए रहती है ,और समय आने पर उसे प्रकट करती है ।

 परमात्मा शिव आदेश रूप में " कामरूप" यानि कामाख्या का संपूर्ण ज्ञान रखते हैं । इसलिए स्वयं "पार्वती" कामाख्या का ज्ञान या प्रकाश है,और कामरूप शक्ति को प्राप्त करके या  "रति" और "काम" इन दोनों की समाख्याता  पार्वती ही "कुंडलिनी  शक्ति" के रूप में ब्रह्मांड के अंतर्गत सृष्टि का विकास करती है। 

विद्या के रूप  में गणेश विद्या का ज्ञान मुख्य  है। इसलिए इस काम के लिए शिव को गणेश के लिए तैयार करना होता है और प्रार्थना भी। 

इसलिए जितनी भी विद्या हैं वे किसी न किसी हेतु से जन्मी हैं।  उनके मालिक चाहें गणेश हों या पार्वती सब सब उस परमेश्वर के ज्ञान को पुष्ट करते हैं ।एकमात्र परमेश्वर ही सारी विद्याओं का स्वामी है । इसलिए सारी विद्याएं उसमें निहित हैं।

 अब रही बात व्रत की इसको कैसे संपादित करना चाहिए।  व्रत तो स्वयं इंद्रियों का है, जो किसी काम को तैयार नहीं है संतानोत्पत्ति के लिए तैयार करना ही इस  व्रत का प्रयोजन है। देव रूप इंद्रियां यम देवता पक्ष को मजबूत करने का साधन यह व्रत है जब हम किसी कार्य को पूर्णता में ले जाने की संकल्पना करते हैं तो निश्चित ही वह कार्य ईश्वर की कृपा से पूर्णता को प्राप्त होता है । ज्ञान का क्षेत्र चाहे विद्या हो अथवा लौकिक अथवा परमेश्वर के हित में सब सब इस बुद्धि तत्व से संबंध रखते हैं । इसलिए बुद्धि से उपजा ज्ञान ही मुख्य है । निश्चय रुप जो भी कुछ है वही परमात्मा की आज्ञा रूप है। इसलिए व्रत का प्रयोजन स्वयं उस ईश्वर की आज्ञा का ही उपजा ज्ञान है जो व्रत की श्रेष्ठता को परिभाषित करता है । इसलिए व्रत कोई हो गणेश का हो या किसी देवता का सबसे बड़ा व्रत उस परमेश्वर में  निहित ज्ञान को ही परिपूर्णता में लाने का एक माध्यम है । इसलिए व्रत के स्वरूप को समझना ही मुख्य है। क्योंकि "व्रतपति" तो ईश्वर है वह जिसे चाहे जो भी प्रदान कर दे । सारे व्रतों का मालिक सारे संकल्पों का मालिक वही है। व्रत का मतलब आचरण से शिक्षा से है कि हम उस ईश्वर को मानें उसकी शक्ति को स्वीकार करें। अनंत शक्तियाँ हैं जो व्रत के रूप में पूजित होती है या किसी दूसरे रूप में सब- सब उस ईश्वर की ही निष्ठा रूप होती हैं । इसलिए निष्ठा को पकड़ो। निष्ठा को पकड़ा तो सब कुछ हाथ आ गया समझो,यही ईश्वर वाक्य है और प्रमाण भी । 

 भगवान श्री कृष्ण ने गीता में जो दो प्रकार की निष्ठाएं बतायी  हैं उनका उद्देश्य भी लौकिक और वैदिक सब सब   अभिलाषाओं को पूर्ण करना है। इसलिए समझो ज्ञान को जो स्वयं ईश्वर का रूप है । 

जय श्री महान । 

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