संत कबीर : सीख,काम और भक्ति के अनूठे संगम का संतुलन व वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कबीर के दोहों की प्रासंगिकता

हिन्दुस्तान वार्ता। ✍️ डॉ.प्रमोद कुमार

11 जून : भारतीय संत परंपरा में संत कबीर का स्थान अत्यंत विशिष्ट और अद्वितीय है। उन्होंने एक ऐसे युग में जन्म लिया था जब समाज घोर धार्मिक पाखंड, जातिगत भेदभाव और सामाजिक विषमताओं में उलझा हुआ था। कबीर ने अपनी वाणी के माध्यम से जनसामान्य को भक्ति, कर्म और ज्ञान – तीनों के समन्वय से जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने सच्चे अर्थों में जीवन के संतुलन का मार्ग प्रस्तुत किया।

संत कबीर भारतीय अध्यात्म और सामाजिक चेतना के इतिहास में एक ऐसे अद्वितीय संत और कवि थे जिन्होंने न केवल धार्मिक आडंबरों पर सवाल उठाया, बल्कि भक्ति, काम (कर्म), और सीख (ज्ञान) के त्रिकोण को एक ऐसे संतुलित दृष्टिकोण में ढाला जो आज भी प्रेरणादायी है। उन्होंने जीवन के प्रत्येक पहलू को सहजता से समझने और उसे संतुलित रूप से जीने की प्रेरणा दी। इस लेख में हम संत कबीर के जीवन, भक्ति की उनकी अवधारणा,कर्म के प्रति उनके दृष्टिकोण, ज्ञान की व्याख्या तथा इन तीनों तत्वों सीख, काम (कर्म), और भक्ति के बीच सामंजस्य पर विस्तृत चर्चा करेंगे।

1. संत कबीर का जीवन और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :

जन्म और प्रारंभिक जीवन :

संत कबीर के जन्म को लेकर इतिहास में विभिन्न मत हैं। सामान्य मान्यता के अनुसार वे 1398 ईस्वी के आसपास वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में जन्मे थे। उनका पालन-पोषण एक मुस्लिम जुलाहा परिवार में हुआ, परंतु उनकी चेतना किसी धार्मिक संकीर्णता में सीमित नहीं रही। संत कबीर समाज के उपेक्षित वर्ग से थे,परंतु उनकी वाणी और सोच इतनी सशक्त थी कि राजा से लेकर रंक तक उनकी बातें सुनते थे। 

"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।" 

 इस दोहे से कबीर की सामाजिक दृष्टि स्पष्ट होती है।

 सामाजिक स्थिति :

कबीर एक ऐसे समय में जन्मे जब भारत में भक्ति आंदोलन का उदय हो रहा था। इस काल में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों में कट्टरता, आडंबर, और जाति-धर्म की दीवारें मजबूत हो चुकी थीं। कबीर ने इन दीवारों को तोड़ने का बीड़ा उठाया।

2. भक्ति: आत्मा का परम सत्य से संवाद ;

कबीर की भक्ति परंपरा निर्गुण धारा की थी – जिसमें ईश्वर का कोई मूर्त रूप नहीं होता। उनका ईश्वर निराकार, अलौकिक और सर्वव्यापी था। कबीर की भक्ति के प्रमुख आयाम :

ईश्वर की सर्वत्रता: वे मानते थे कि ईश्वर मंदिर-मस्जिद में नहीं, बल्कि हर जीव के अंदर है।

निर्गुण भक्ति : उन्होंने मूर्ति-पूजा, पाखंड और बाहरी आडंबरों का विरोध किया।

स्वानुभूति पर आधारित भक्ति : उन्होंने कहा 

"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

"ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।" 

भक्ति, कबीर के लिए केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन की मूल चेतना थी। वह प्रेम और करुणा के साथ जुड़ी हुई थी।

3.कबीर की भक्ति: निर्गुण प्रेम और आत्मा की साधना :

 निर्गुण भक्ति का स्वरूप :

कबीर ने किसी मूर्ति या विशेष धार्मिक प्रतीक में ईश्वर को नहीं देखा। उन्होंने कहा..

“निर्गुण राम का नाम लीजै,

सूना मंदिर तज दे मीत।” 

उनकी भक्ति प्रेम से सराबोर थी। वे राम और रहीम को एक मानते थे। उनके लिए ईश्वर का अर्थ आत्मा की अंतरात्मा में बसा सच था।

 भक्ति में आत्मबोध :

कबीर के लिए भक्ति केवल पूजा-पाठ नहीं थी, वह आत्मबोध का माध्यम थी। उन्होंने कहा

 "जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।

सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा माहिं।"

भक्ति में प्रेम और करुणा :

कबीर की भक्ति प्रेम से आरंभ होकर करुणा पर समाप्त होती थी। उनका आदर्श प्रेममय संसार था, जिसमें सब जीव एक समान हैं।

 काम (कर्म) : जीवन का श्रम और उत्तरदायित्व

 कर्म की महत्ता :

कबीर केवल प्रवचन करने वाले संत नहीं थे, वे कर्मयोगी थे। जुलाहा होकर कपड़ा बुनना ही उनके लिए ईश्वर की साधना थी। उनका यह कथन प्रसिद्ध है

"हाथ करैं कमाई, मुख सुमिरन सोय।

तन करैं उद्यम सदा, मन रहै हरि में होय।"

कर्म में भक्ति का समावेश :

कबीर ने काम और भक्ति को अलग नहीं माना। वे मानते थे कि सच्ची भक्ति वही है जो कर्म में प्रकट हो। यह दर्शन गीता के ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ के समीप है।

आत्मनिर्भरता और श्रम की प्रतिष्ठा :

कबीर का जीवन श्रम-संस्कृति की महान प्रेरणा है। उन्होंने अपने श्रम को ही पूजा बना दिया।

"साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय।

मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।" 

भक्ति, कर्म और ज्ञान का त्रिकोणीय संतुलन कबीर का सबसे बड़ा योगदान बताया था कि उन्होंने जीवन के तीन प्रमुख स्तंभों – भक्ति, कर्म, और ज्ञान – को एकीकृत और संतुलित दृष्टिकोण में ढाला। भक्ति ने उन्हें प्रेम और करुणा दी। कर्म ने उन्हें अनुशासन और आत्मनिर्भरता दी। ज्ञान ने उन्हें विवेक और स्वतंत्रता दी। उन्होंने न तो केवल भक्ति में डूबने की बात की, न केवल कर्म में व्यस्त रहने की, और न ही केवल ज्ञान में लीन होने की – बल्कि इन तीनों को एकात्म रूप में जीने का संदेश दिया।

5. सीख (ज्ञान): विवेक और आत्मचिंतन की मशाल :

ज्ञान की परिभाषा :

कबीर के अनुसार सच्चा ज्ञान वह है जो जीवन को बदल दे, अहंकार को नष्ट कर दे और आत्मा को प्रकाश से भर दे। उन्होंने शास्त्रों के अक्षरों से अधिक अनुभव को महत्व दिया..

"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।"

आत्मसमीक्षा की शिक्षा :

कबीर आत्मावलोकन को आवश्यक मानते थे। उनके दोहे इस सत्य को उजागर व प्रकट करते हैं।

"बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।"

विवेक और तर्क की महत्ता :

कबीर ने अंधभक्ति और अंधश्रद्धा का विरोध किया। वे खुले विवेक, तर्क और संवाद के समर्थक थे।

6. तीनों का संतुलन: कबीर की जीवन-दृष्टि का सार ;

 त्रिवेणी का उद्गम :

कबीर के विचारों में ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों प्रवृत्तियाँ एक दूसरे से पूरक थीं। उन्होंने इनमें से किसी को भी अधिक महत्व नहीं दिया बल्कि इनका संतुलित विकास किया।

तत्व भूमिका : भक्ति आत्मा की शुद्धि और प्रेम की ऊर्जा

कर्म जीवन की सक्रियता और सामाजिक उत्तरदायित्व

ज्ञान विवेक और आत्मबोध का आधार

6 भक्ति में कर्म,कर्म में ज्ञान :

कबीर की दृष्टि में कर्म, भक्ति और ज्ञान एक ही जीवनरूपी वृक्ष की शाखाएँ हैं। उन्होंने कहा

"करनी करनि जाणा, भक्ति भाव मन माहिं।

कबिरा सोई संत है, हरि जैसा चित्त राहिं।"

7. कबीर की वाणी: सामाजिक चेतना की साक्षी :

 जातिवाद का विरोध :

कबीर ने जाति-व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया। उन्होंने कहा

"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।"

 स्त्री और मानवता की प्रतिष्ठा :

कबीर ने स्त्रियों को भी बराबरी का दर्जा दिया और मानवता को सर्वोपरि माना।

 सांप्रदायिकता का विरोध 

उन्होंने मंदिर और मस्जिद दोनों की व्यर्थता को उजागर किया

"मालिक एक सहाय है,कहे कबीर विचार।

कहें राम कहें रहिम, कोऊ न करै गुजार।" कबीर का सामाजिक क्रांतिकारी रूप कबीर एक विचारक और समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने निम्नलिखित मुद्दों पर विशेष बल दिया: जाति-विरोध, सांप्रदायिकता का खंडन, स्त्री और श्रमिक की प्रतिष्ठा, नैतिकता और समभाव का समर्थन आदि। उनकी वाणी आज भी साम्प्रदायिक सद्भाव, सामाजिक न्याय और आत्मबोध का आदर्श मार्गदर्शन करती है।

8. कबीर की वाणी: सार्वकालिक प्रेरणा :

उनकी वाणी सादी, सच्ची और अनुभवजन्य है। उदाहरण :

"साईं इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय।

मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।"

"जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।

सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा माहिं।"

यह वाणी जीवन की ऊँच-नीच, आत्मबोध, और संतुलन की ओर निर्देश करती है।

9. वर्तमान में कबीर की प्रासंगिकता

 धर्म और समाज में संतुलन :

आज जब समाज धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता की चपेट में है, कबीर की वाणी प्रेम, संवाद और सहिष्णुता का मार्ग दिखाती है।

आध्यात्मिकता और कर्मयोग :

उनकी जीवन-पद्धति कर्मशील और आत्मनिष्ठ होने का आह्वान करती है, जिसमें भक्ति प्रदर्शन नहीं, अनुभूति है।

 शिक्षा और विवेक का मार्गदर्शन:

कबीर की सीखों को आधुनिक शिक्षा प्रणाली में स्थान दिया जाना चाहिए ताकि विवेकशील नागरिकों का निर्माण हो।

 वर्तमान में कबीर का संतुलित दृष्टिकोण :

आज के तनावपूर्ण,असंतुलित, और बाह्य-आडंबरों से भरे समाज में कबीर का संतुलित दृष्टिकोण एक मार्गदर्शक दीपक की तरह है। उन्होंने सिखाया कि जीवन में भक्ति (प्रेम), कर्म (दायित्व), और ज्ञान (विवेक) का संतुलन ही सच्चा धर्म है। कबीर का जीवन और वाणी इस बात की मिसाल है कि सच्ची भक्ति वह है जो कर्म में अभिव्यक्त हो और ज्ञान से संचालित हो।

संत कबीर एक युगद्रष्टा थे। उन्होंने अपने जीवन और वाणी के माध्यम से यह सिद्ध किया कि सच्चा जीवन वह है जो ज्ञान (सीख), कर्म (काम), और भक्ति के संतुलन से प्रेरित हो। वे न केवल एक संत थे, बल्कि एक क्रांतिकारी विचारक, समाज-सुधारक और मानवतावादी भी थे।

उनका यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि सैकड़ों वर्ष पहले था। उनके जीवन को न तो केवल धर्म में, न केवल कर्म में और न केवल ज्ञान में बाँधा जा सकता है। सही जीवन वही है जो प्रेमपूर्ण भक्ति से समर्पित कर्म से और प्रबुद्ध ज्ञान से संतुलित हो।

- लेखक,डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov

डॉ.भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय,आगरा हैं।