फादर्स डे विशेष: "पिता" ✍️ अनिल कुमार शर्मा



हिन्दुस्तान वार्ता।

मैं अभावों व दायित्वों के उस कठिन दौर से गुजरा ही नही।

सामाजिक मजबूरी की उस तराज़ू पर तुला ही नहीं।

जिस पर पिता ने संतुलन के पलड़े को साधे रखा।

जिस पिता ने अपने पिता को देखा ही नहीं।

देश की ग़ुलामी के उस युग में

20 सदस्यों के सम्मिलित परिवार को 

शिक्षित करने सपना देखा जिसने, 

जिसने जीवन की इस कठिन परीक्षा को उच्च श्रेणी में पास किया हो,

उस पिता पर क्या ख़ाक लिखूँगा मैं ?

पिता विहीन मेरे पिता को यह दायित्व उठाने का अभ्यास यौवन काल में ही हो गया था। 

मानसिक रूप से वो विवाह से पहले ही पिता बन चुके थे। 

मुझे जब पिता दर्जा मिला तो उसके दायित्व को सीख न सका ,

पौत्र/ प्रपौत्र मोह में मॉं-बाप व दादी मेरे हिस्से के इस सुखद दायित्व को सहजता से उठाते रहे। 

सहायता कब अधिकार में बदल गई ज्ञात ही नही हुआ।

मैं जैविक (बायोलौजिकल )पिता ही बना रहा।

सम्मिलित परिवार एवं अपनी चार पीढ़ियों को, 

स्नेह व कर्तव्य के धागे से जोड़े रहे मम्मी-पापा-अम्मा,

वानप्रस्थी जीवन में भी पिता परिवारिक भार / दायित्व ख़ुशी से उठाते रहे। 

फ्रैन्ड-कम-फादर का सुखद अभिनय करते रहे पिता, लेकिन 

मॉं के आकस्मिक निधन बाद मॉं का मुश्किल अभिनय करना, 

उनकी मजबूरी जैसा रहा।

यह बात मैं 

अपनी पत्नी के निधन के बाद समझ सका,

कि कितने असहाय एवं दुःखित रहे होंगे पिता और यह भी समझ सका कि 

विरही स्थिति में मूल अभिनय करना कितना कठिन होता है वह भी मॉं का ??

इस स्थिति में दर्शकों की वाहवाही कलाकार को नहीं सुहाती।

निकटतम और सहज उपलब्ध 

उस पिता  का आंकलन असम्भव है। 

परिवार उनके साथ रहते हुए भी इस क़दर रहा अंजाना 

कि ?

पिता जैसी अमूल्य निधि को खोने के बाद ,

पिता के सम्मिश्रित व्यक्तित्व की खूबियों को जाना।