स्वतंत्रता सेनानी एवं क़म्यूनिस्ट नेता का.महादेव नारायण टंडन की 22 वीं पुण्य तिथि पर आयोजित व्याख्यान


हमारी हिंदी के अवसर और संकट

हिंदी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जो अंग्रेजी के प्रसार और प्रभुत्व का डटकर मुक़ाबला कर सकती है : प्रो.अभय कुमार दुबे.

ज़ब तक हिंदी कमजोर है,तब तक पहचान अधूरी ही है : डॉ.जे.एन.टंडन

हिन्दुस्तान वार्ता। ब्यूरो

आगरा : आज़ादी के सिपाही,मार्क्सवादी विचारक,भारतीय संस्कृति के हामी, पीड़ित,शोषित,मजदूर,किसानो के हिमायती,सांप्रदायिक ताकतो के घोर विरोधी,हर दिल अज़ीज़ का.महादेव नारायण टंडन की 22 वीं पुण्यतिथि पर माथुर वैश्य सभागार,पचकुइयां पर परम्परागत रूप से आयोजित व्याख्यान क्रम मे इस बार 'हमारी हिंदी के अवसर और संकट' विषयक व्याख्यान की।

 शुरुआत वरिष्ठ शिक्षाविद एवं कवयित्री कार्यक्रम अध्य्क्ष डॉ.कुसुम चतुर्वेदी,अतिथि वक्ता प्रो.अभेय कुमार दुबे, डॉ.देव स्वरुप, का.पूरन सिंह. भावना जितेंद्र रघुवंशी द्वारा कामरेड टंडन के चित्र पर माल्यार्पण एवं पुष्प्पांजलि कर हुई।

जयपुर से पधारे बाबा आमटे दिव्यांग विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ.देव स्वरुप ने कामरेड टंडन के अविस्मरणीय एवं अतुलनीय व्यक्तित्व एवं किरदार को याद करके भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। उपस्थित जन के स्वागत सहित विषय प्रवर्तन करते हुए का.डॉ. जे.एन. टंडन ने कहा कि आज हिंदी का संकट यही है कि हिंदी भाषी नई रागात्मक निष्ठा के सांस्कृतिक स्तर पर भाषा से कटा हुआ है। हमे हिंदी को सिर्फ बोलने की नहीं अपनाने की ज़रूरत हैं। अगर हमे हिंदी  पर गर्व नहीं,तो हमे अपनी जड़ों से जुड़ने का हक़ भी नहीं हैं। जब तक हिंदी कमजोर है,तब तक पहचान अधूरी है।

अतिथि वक्ता प्रख्यात मीडिया विश्लेषक प्रो.अभय कुमार दुबे ने अपने व्याख्यान में कहा कि शुरुआत से ही हिंदी का संघर्ष तितरफ़ा था। पहली समस्या यह थी कि उसे एक बेहद बहुभाषी देश में युरोपीय शैली की राष्ट्रभाषा को थोपे बिना भारतीय संघ की राजभाषा बनना था। दूसरी समस्या यह थी कि इस प्रक्रिया में महज़ सरकारी कामकाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली राजभाषा और सभी के लिए अनिवार्य राजभाषा के बीच घालमेल कैसे रोका जाए। तीसरी और सबसे बड़ी समस्या यह थी कि राजभाषा के रूप में हिदीं को अन्य भाषाओं पर आरोपित किये बिना राष्ट्रीय एकता के सर्वमान्य उपकरण में कैसे बदला जाए। कुल मिला कर भारतीय संघ की राजभाषा को इस बहुभाषी देश की सर्वस्वीकृत सम्पर्क भाषा बनने-बनाने का संघर्ष ही हिंदी का सबसे बड़ा संघर्ष है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए हिंदी के पास सभी गुण हैं,लेकिन इस सर्वलक्षणा हिंदी के रास्ते में अंग्रेज़ों द्वारा चलाई गई भाषाई राजनीति सबसे बड़ी रुकावट है।

आज के हिंदी-विरोधी आंदोलन उसी इतिहास से निकले हैं.हिंदी एक डबल-सेक्टर लेंग्वेज है.उसका एक सरकारी सेक्टर है और एक सामाजिक सेक्टर. लेकिन,दोनों एक-दूसरे को बहुत कम मज़बूत करते हैं.सामाजिक क्षेत्र अवसरों को पैदा करता है और सरकारी क्षेत्र अवसरों को नष्ट करता है। हिंदी के नादान समर्थक भी उसे युरोपीय किस्म की राष्ट्रभाषा के रूप में देख कर इस अंतर्विरोध को पेचीदा बनाते हैं। वे जानते हुए भी समझना नहीं चाहते कि ऐसा करके वे अंग्रेज़ी के लिए देश की सम्पर्क भाषा बन जाने का रास्ता साफ़ कर रहे हैं।

अंततः हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जो अंग्रेज़ी के प्रसार और प्रभुत्व का मुक़ाबला कर सकती है। अंग्रेज़ी को कोने में धकेल कर भारत की सम्पर्क भाषा बनना और राष्ट्रीय एकता का भाषिक आधार प्रस्तुत करना ही हिंदी का प्रारब्ध है।अतिथि वक्ता प्रो.अभेय कुमार दुबे को डॉ.स्मिता टंडन द्वारा स्मृति भेट दी गई।

आभार कामरेड पूरन सिंह ने दिया। संचालन प्रमुख समाजसेवी हरीश चिमटी ने किया।

इस अवसर पर पूर्व मंत्री चौ.उदय भान सिंह,रामनाथ गौतम,ज्योत्सना रघुवंशी, दिलीप रघुवंशी,डॉ.वीआर सेंगर,डॉ.राकेश भाटिया,डॉ.अजय कालरा,डॉ.सुनील शर्मा,डॉ.अनुपम शर्मा,डॉ.अनुपम गुप्ता,शरीफ उस्मानी,शिवराज यादव,डॉ. संजय कुलश्रेष्ठ,डॉ.एस एस सूरी, डॉ. अनूप दीक्षित,डॉ.रजनीश त्यागी,डॉ.जय बाबू,डॉ.विजय कत्याल, डॉ.मुकेश भारद्वाज,रामनाथ शर्मा, रमेश पंडित, डॉ.रजनीश गुप्ता, डॉ. मधुरिमा शर्मा, नीरज मिश्रा,डॉ.मुनीश्वर गुप्ता आदि बड़ी संख्या मे विशिष्ट जन उपस्थित थे।