हिन्दुस्तान वार्ता। ✍️ डॉ.प्रमोद कुमार
भारतीय ज्ञान परंपराओं ने ऐतिहासिक और आधुनिक दोनों संदर्भों में संचार को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन परंपराओं ने दर्शन, भाषा-विज्ञान और सांस्कृतिक प्रथाओं में निहित मौखिक, लिखित और गैर-मौखिक संचार रूपों पर बल दिया। इस प्रकार भारतीय ज्ञान परंपराओं ने संचार को दर्शन, भाषा-विज्ञान, कहानी कहने और नैतिक संवाद का सम्मिलन कर आकार दिया है, जिससे वे आज के परिदृश्य में भी प्रासंगिक बनी हुई हैं। भारतीय ज्ञान परंपराएं आज भी आधुनिक मीडिया, पत्रकारिता और डिजिटल कहानी कहने पर प्रभाव डाल रही हैं। लोगों ने संरचित ग्रंथों और मौखिक परंपराओं के माध्यम से संवाद किया, जिससे ज्ञान का पीढ़ी दर पीढ़ी संचरण सुनिश्चित हुआ। भारतीय ज्ञान परंपराओं ने संचार को इस प्रकार प्रभावित किया है। संचार ज्ञान सृजन, संरक्षण और प्रसार की रीढ़ है। भारत में, ज्ञान की परंपराओं ने ऐतिहासिक रूप से मौखिक संस्कृति, शास्त्रीय प्रामाणिकता, प्रदर्शन कलाओं और संवादात्मक विधियों में जटिल संचार संरचनाओं को विकसित किया। भारतीय ज्ञान परंपराओं (IKTs) में संचार अध्ययन यह अंतर्दृष्टि प्रदान करता है कि समाज किस प्रकार अर्थ का निर्माण करता है, शिक्षा प्रणालियों को आकार देता है, व्यवहार को नियंत्रित करता है और ज्ञान की निरंतरता सुनिश्चित करता है। भारत सहस्राब्दियों से फैली एक विशाल और समृद्ध ज्ञान परंपराओं का घर रहा है। ये परंपराएं दर्शन, अध्यात्म, भाषा-विज्ञान, चिकित्सा, खगोलशास्त्र, गणित, कला और शिक्षा जैसे कई क्षेत्रों को कवर करती हैं। इन विविध बौद्धिक प्रयासों के केंद्र में एक एकीकृत तत्व है: संचार। भारतीय संदर्भ में संचार केवल सूचना के प्रसारण तक सीमित नहीं है,बल्कि यह ज्ञानमीमांसा, शिक्षाशास्त्र, सामाजिक संरचना और आध्यात्मिक अनुसंधान से गहराई से जुड़ा हुआ है। भारतीय ज्ञान प्रणालियों में संचार मौखिक और लिखित, प्रतीकात्मक और शाब्दिक, प्रदर्शनात्मक और दार्शनिक रहा है। वेदों के मौखिक प्रसारण से लेकर व्याकरण और काव्यशास्त्र के शास्त्रीय ग्रंथों तक, नाट्यशास्त्र में निर्दिष्ट नाट्य रूपों से लेकर बुद्ध के संवादात्मक शिक्षण तक, भारतीय परंपराएं यह दर्शाती हैं कि अर्थ कैसे निर्मित, संरक्षित और साझा किया जाता है।
यह शोधपत्र भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार की पृष्ठभूमि और विकास का अन्वेषण करता है, इसका उद्देश्य इसके ऐतिहासिक संदर्भ, भूमिका, क्षेत्र, कार्य और व्यावहारिक उपयोग को समझना है। यह संचार के दार्शनिक, शैक्षणिक, धार्मिक और कलात्मक आयामों की समग्र समीक्षा करता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय समाजों ने ज्ञान के प्रवाह और परिवर्तन को कैसे अवधारित किया। ऐसे अध्ययन की आवश्यकता एक वैश्वीकृत दुनिया में और अधिक स्पष्ट हो जाती है, जहाँ स्वदेशी ज्ञान प्रणालियाँ अक्सर उपेक्षित रह जाती हैं या पश्चिमी प्रतिमानों के माध्यम से मूल्यांकित की जाती हैं। भारतीय संचार परंपराओं को उनके अपने शर्तों पर पुनः खोजने से मानव संचार प्रक्रिया की अधिक समृद्ध और समावेशी समझ विकसित की जा सकती है। इस शोधपत्र के अगले भाग भारतीय ज्ञान प्रणालियों में संचार के ऐतिहासिक और विषयगत अन्वेषण के रूप में संरचित हैं। इसका लक्ष्य मौलिक विचारों और प्रथाओं की पहचान करना, प्रमुख ग्रंथों और विचारकों की व्याख्या करना और संचार को भारत की व्यापक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना में स्थित करना है। यह शोधपत्र भारतीय ज्ञान प्रणालियों में संचार के मूल तत्वों की खोज करता है, जो वैदिक काल से लेकर समकालीन संरचनाओं तक के विकास को कवर करता है। इसमें भाषा, प्रतीक, अनुष्ठान, संवाद, कहानी कहने, कला रूपों और शैक्षणिक संस्थानों के संचार साधनों के रूप में उपयोग की चर्चा की गई है।
1. भारतीय ज्ञान परंपराओं का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
1.1 वैदिक काल और मौखिक प्रसारण :
ऋग्वेद सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद भारतीय ज्ञान के प्रारंभिक भंडार हैं। इन्हें सदियों तक श्रुति (जो सुना गया) और स्मृति (जो याद रखा गया) की अत्यंत व्यवस्थित तकनीकों के माध्यम से मौखिक रूप से प्रसारित किया गया। इस काल में संचार अत्यधिक श्रव्य और स्मृति-आधारित था, जिसमें छंदों की शुद्धता बनाए रखने के लिए उच्चारण और स्वर का विशेष महत्व था।
1.2 उपनिषद और दार्शनिक बदलाव :
उपनिषदों के साथ संचार अधिक संवादात्मक और अंतर्मुखी हो गया। शिक्षक और शिष्य के बीच संवाद (संवाद) प्रमुख हो गया। ज्ञान का संचार दार्शनिक बहस और आत्मानुभूति (अनुभव) के माध्यम से हुआ।
1.3 बौद्ध और जैन योगदान :
बौद्ध और जैन परंपराओं ने संचार के साधनों में क्रांतिकारी बदलाव लाए। इन्होंने संस्कृत के स्थान पर पाली और प्राकृत जैसी देशज भाषाओं को अपनाया। उनके उपदेश मौखिक कथाओं, संवादों और मठ शिक्षा प्रणालियों के माध्यम से व्यापक रूप से प्रसारित हुए।
1.4 शास्त्रीय और मध्यकालीन काल :
इस काल में शास्त्र परंपरा (पाठ्य ज्ञान) का विकास हुआ। व्याकरण (व्याकरण), तर्कशास्त्र (न्याय) और सौंदर्यशास्त्र (नाट्यशास्त्र) जैसे विषयों ने संचार सिद्धांतों का औपचारिककरण किया। दृश्य, प्रदर्शनात्मक और नाट्य कलाएं (जैसे नृत्य और रंगमंच) सांस्कृतिक संचरण के महत्वपूर्ण साधन बने।
1.5 औपनिवेशिक और आधुनिक हस्तक्षेप :
ब्रिटिश उपनिवेशवाद और आधुनिक शिक्षा प्रणालियों ने पारंपरिक संचार रूपों को हाशिये पर डाल दिया। फिर भी स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी जैसे आधुनिक भारतीय विचारकों ने इन परंपराओं का पुनरुद्धार और पुनर्व्याख्या की।
2. भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार की भूमिका :
2.1 ज्ञान का संरक्षण और प्रसार :
भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार का प्रमुख कार्य ज्ञान का संरक्षण और अंतरपीढ़ीय प्रसारण था। मौखिक परंपराएं, लिपिबद्ध ग्रंथ, प्रदर्शन कलाएँ और अनुष्ठान-परंपराएं इस प्रक्रिया के मुख्य साधन थे। उदाहरण के लिए, वेदों को पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक परंपरा के माध्यम से सुरक्षित रखा गया, जहाँ उच्चारण और रचनाशैली का कठोर पालन किया जाता था।
2.2 सामाजिक संगठन और सामुदायिक निर्माण :
संचार ने सामाजिक नियमों, धार्मिक विश्वासों और नैतिक आचरण के कोड को स्थापित करने में भूमिका निभाई। धर्मशास्त्रों, स्मृतियों और स्थानीय कहावतों के माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों में समान मान्यताओं और व्यवहार के पैटर्न विकसित किए गए।
2.3 शैक्षणिक और बौद्धिक विकास :
प्राचीन भारत के तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों ने संवाद, वाद-विवाद और व्याख्यान के माध्यम से शिक्षा को संगठित किया। ज्ञान का संचार गुरु-शिष्य परंपरा (Mentorship Tradition) के द्वारा संरचित था, जहाँ शिष्य प्रत्यक्ष अनुभव और चर्चा के माध्यम से सीखते थे।
2.4 आध्यात्मिक और धार्मिक संचार :
भारत की धार्मिक परंपराओं (हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख) में संचार आंतरिक और बाहरी दोनों तरह की यात्रा का साधन रहा। उपदेश, कथा, भजन, मंत्रोच्चार, और ध्यान-सत्रों ने आंतरिक आत्मान्वेषण और धार्मिक अनुभव को सुविधाजनक बनाया।
2.5 कला और सौंदर्य के माध्यम से संचार :
नाट्यशास्त्र जैसे ग्रंथों ने बताया कि नाट्यकला, संगीत और नृत्य संचार के शक्तिशाली साधन हैं। ‘रस’ (भावनाओं) का सिद्धांत बताता है कि किस प्रकार कलाकार दर्शकों में विशिष्ट भावनाएँ उत्पन्न कर सकते हैं, जिससे एक गहरे स्तर पर अर्थ का संप्रेषण होता है।
3. भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार का क्षेत्र :
भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख पहलू सम्मिलित हैं:
3.1 मौखिक संचार :
श्रुति और स्मृति परंपराएँ : ज्ञान का मौखिक रूप में संचार।
गाथा और लोककथा : लोककथाओं और महाकाव्यों के माध्यम से सामाजिक मूल्यों और इतिहास का प्रसारण।
प्रवचन और संवाद : शिक्षक और शिष्य के बीच प्रश्नोत्तर और चर्चाओं के रूप में ज्ञान का संचार।
3.2 लिखित संचार :
संस्कृत, पाली, प्राकृत और तमिल में ग्रंथ लेखन।
शास्त्र, सूत्र, टीकाएं और भाष्य: संचार के औपचारिक और विद्वत्तापूर्ण माध्यम।
पत्राचार : पत्रों और दस्तावेजों के माध्यम से व्यक्तिगत और शासकीय संचार।
3.3 प्रतीकात्मक और प्रदर्शनात्मक संचार :
चित्रकला और मूर्तिकला : प्रतीकात्मक रूप में आध्यात्मिक विचारों और मिथकों का संचार।नृत्य, नाटक और संगीत: अभिव्यक्तिपूर्ण संचार के माध्यम, जैसे कथकली,भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी आदि।
मंदिर वास्तुकला : स्थापत्य और भित्तिचित्रों के माध्यम से धार्मिक और दार्शनिक विचारों का प्रसारण।
3.4 दार्शनिक और तर्कशास्त्रीय संचार :
वाद और संवाद की परंपरा : न्यायशास्त्र,मीमांसा और बौद्ध तर्कशास्त्र में तर्कपूर्ण विमर्श।
समाधान और खंडन : विचारों के विरोध और समर्थन के माध्यम से बौद्धिक विकास।
3.5 अनुष्ठान और धार्मिक समारोह :
यज्ञ, पूजा, पर्व : सामाजिक और आध्यात्मिक एकता को मजबूत करने वाले संचार साधन।
मंत्र और जप : ध्वनि और उच्चारण के माध्यम से संचारित आध्यात्मिक ऊर्जा।
4. भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार के कार्य :
भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार केवल सूचनाओं के आदान-प्रदान का माध्यम नहीं रहा, बल्कि इसका बहुआयामी कार्य रहा है। प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं :
4.1 ज्ञान का संरक्षण :
मौखिक परंपराओं, मंत्रों, और शास्त्रों के माध्यम से प्राचीन ज्ञान, संस्कृति और दर्शन को संरक्षित किया गया।
विशेष रूप से, वेदों,उपनिषदों और महाकाव्यों का संरक्षण संचार के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संभव हुआ।
4.2 शिक्षा और प्रशिक्षण :
गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से शास्त्रार्थ, वाद-विवाद और व्याख्यान द्वारा शिक्षा का संचार हुआ।
विभिन्न विद्याओं – जैसे गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत और नाट्यकला – का प्रशिक्षण संचार के व्यवस्थित तरीकों से दिया जाता था।
4.3 सामाजिक एकता और नैतिक विकास :
धार्मिक कथाएँ, लोककथाएँ और महाकाव्य जैसे रामायण और महाभारत ने समाज में नैतिक मूल्यों,कर्तव्यों और धर्म का संचार किया। अनुष्ठानों और पर्वों के आयोजन से सामाजिक एकता और सामूहिक चेतना का विकास हुआ।
4.4 आध्यात्मिक जागृति और मोक्षमार्ग का निर्देशन :
वेदांत, बौद्ध और जैन दर्शन में संचार का कार्य व्यक्ति को आत्मज्ञान, ध्यान और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करना रहा।
प्रवचन, उपदेश और ध्यान तकनीकों के माध्यम से आध्यात्मिक चेतना का संचार किया गया।
4.5 संस्कृति और परंपराओं का प्रसार :
कथाओं, गीतों, नृत्यों और नाटकों के माध्यम से सांस्कृतिक धरोहर का प्रसार हुआ।
विशेष आयोजनों जैसे कथा-प्रवचन,लोकनाट्य (जैसे यक्षगान, तमाशा) ने स्थानीय और क्षेत्रीय परंपराओं को जीवित रखा।
4.6 बौद्धिक विमर्श और नवाचार :
वाद-विवाद (Debate) और संवाद (Dialogue) की परंपरा ने नए विचारों और व्याख्याओं को जन्म दिया।
नालंदा और तक्षशिला जैसे शिक्षा केंद्रों में दार्शनिक विमर्श और वैज्ञानिक अनुसंधान संचार के माध्यम से फले-फूले।
4.7 राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यों में सहयोग :
सभाओं, परिषदों और शाही आदेशों (Edicts) के माध्यम से शासन-संचालन में संचार का महत्वपूर्ण योगदान था।
मौर्यकालीन शिलालेख और अशोक के अभिलेख उदाहरण हैं कि किस प्रकार सार्वजनिक संचार द्वारा नीतियों का प्रचार किया जाता था।
5. भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार के उपयोग :
भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार का व्यावहारिक उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में हुआ :
5.1 धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षण :
गुरु-शिष्य संवाद, उपदेश,भजन-कीर्तन और ध्यान सत्रों के माध्यम से। धार्मिक ग्रंथों के पाठ और व्याख्या द्वारा।
5.2 सामाजिक शिक्षण और नैतिक अनुशासन :
धर्मशास्त्र, नीति-साहित्य (जैसे पंचतंत्र,हितोपदेश) के माध्यम से जीवन के आदर्शों का संचार। पर्व-त्योहारों के आयोजन से सामाजिक नियमों और कर्तव्यों का प्रचार।
5.3 विज्ञान और तकनीकी ज्ञान का प्रसार :
गणित, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, चिकित्सा (आयुर्वेद),वास्तुशास्त्र जैसे क्षेत्रों में संचार द्वारा ज्ञान का विस्तार। शास्त्रों और सूत्रों में तकनीकी जानकारी संचारित की गई।
5.4 कला और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति :
नाटक, नृत्य और संगीत के माध्यम से भावनाओं, कथाओं और दर्शनों का संप्रेषण। चित्रकला, शिल्प और वास्तुकला के माध्यम से प्रतीकात्मक संचार।
5.5 राजनीतिक आदेश और सामाजिक नियमों का संचार :
शासकों द्वारा घोषणाओं, शिलालेखों और शाही आज्ञाओं के माध्यम से आदेशों का संचार। ग्राम सभाओं और पंचायतों के माध्यम से सामाजिक विवादों का समाधान और निर्णयों का प्रचार।
भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और व्यापक रही है। भारतीय परंपरा में संचार को केवल सूचनाओं के आदान-प्रदान का साधन नहीं माना गया, बल्कि इसे ज्ञान के संरक्षण, प्रसार, आध्यात्मिक उन्नति और सामाजिक संगठन का आधार समझा गया। भारतीय संस्कृति में संचार एक जीवंत, सजीव और सक्रिय प्रक्रिया थी, जो गुरु-शिष्य संबंध, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ, अनुष्ठान, कला, साहित्य, और लोक परंपराओं के माध्यम से जीवित रही। प्राचीन भारत में मौखिक परंपरा के ज़रिए वेदों, उपनिषदों और महाकाव्यों का संचार हुआ, तो दूसरी ओर लिपिबद्ध ग्रंथों और शिलालेखों के ज़रिए ज्ञान और नीतियों का स्थायित्व प्राप्त हुआ। नाट्यकला, लोकगीत, कथाएँ, और धर्मोपदेश संचार के ऐसे साधन बने जिन्होंने जनता के बीच सामाजिक,सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संदेशों को सरलता से पहुँचाया। बौद्ध, जैन और वेदांत परंपराओं ने संचार के माध्यम से आत्मज्ञान और मोक्ष के मार्ग को विस्तृत किया। शिक्षा संस्थानों जैसे नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला में व्यवस्थित संचार प्रणालियों द्वारा उच्च शिक्षा का संचार और विकास हुआ। लोकसंस्कृति ने भी अपने ढंग से सरल, सहज और प्रभावशाली संचार प्रणाली विकसित की, जो आज भी जीवंत है।
भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार की यह विशेषता रही कि वह केवल वाचिक या लिखित नहीं था, बल्कि प्रतीकों, संकेतों, कला और अनुष्ठानों के माध्यम से भी विचारों और मूल्यों का प्रभावी संप्रेषण करता था। इस तरह संचार ने भारतीय समाज को एक निरंतर बहती ज्ञान-धारा में बाँधे रखा, जिसमें परंपरा और नवाचार दोनों का संतुलन बना रहा। आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भी, भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार की यह बहुआयामी समझ — जिसमें गहनता, संवेदना, आचार और विचार का समन्वय है — न केवल अध्ययन के योग्य है, बल्कि आधुनिक संचार प्रणालियों के लिए प्रेरणास्रोत भी बन सकती है। अतः, भारतीय ज्ञान परंपराओं में संचार न केवल इतिहास का विषय है, बल्कि यह भविष्य के संवादों और संप्रेषण प्रणालियों के विकास के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत सिद्ध हो सकता है।
- लेखक डॉ.भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा में डिप्टी नोडल अधिकारी,MyGov' हैं।