हिन्दुस्तान वार्ता। ब्यूरो
लखनऊ : मालेगांव बम विस्फोट केस में आज एक ऐतिहासिक फैसला आया। मुंबई की विशेष अदालत ने इस बहुचर्चित मामले में 17 वर्षों तक चली लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद सातों आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया। अदालत ने अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि अभियोजन पक्ष इन आरोपियों के खिलाफ कोई भी ठोस सबूत पेश नहीं कर सका।
यह सिर्फ एक कानूनी निर्णय नहीं है, बल्कि इससे कहीं बढ़कर है। यह उस मानसिक, सामाजिक और वैचारिक पीड़ा की कथा है,जो देश के निर्दोष नागरिकों को झेलनी पड़ी,केवल इसलिए क्योंकि उन्हें "भगवा आतंकवाद" की एक राजनीतिक रूप से गढ़ी गई परिभाषा में जबरन फिट किया गया।
इन 17 वर्षों में इन निर्दोषों ने केवल कोर्ट के चक्कर नहीं काटे,बल्कि सामाजिक बहिष्कार, मानसिक पीड़ा,आर्थिक संकट और अपमान का जीवन जीया। उनके परिवारों ने रोज़ समाज की तिरछी निगाहें झेली, बच्चों की पढ़ाई छूटी, व्यवसाय बर्बाद हुए और आत्मसम्मान चूर-चूर हो गया।
अब देश के सामने कई गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं :
क्या ये 17 साल लौटाए जा सकते हैं ?
न्याय में देरी,न्याय से इनकार के समान होती है। जिस समाज में निर्दोषों को 17 साल लग जाएं खुद को निर्दोष सिद्ध करने में, उस व्यवस्था पर फिर सवाल तो उठेंगे ही।
केवल न्यायिक बरी कर देना काफी नहीं है। क्या सरकार इन पीड़ितों को मुआवजा देगी? क्या उनके पुनर्वास और मान-सम्मान की बहाली का कोई रोडमैप है? क्या उन अफसरों,नेताओं और जांच एजेंसियों पर कार्रवाई होगी जिन्होंने इन्हें झूठे आरोप में फंसाया?
यह बेहद आवश्यक है कि जिनके इशारों पर और जिनकी रिपोर्टों के आधार पर यह "भगवा आतंकवाद" का नैरेटिव गढ़ा गया, उन पर अब कठोरतम कार्रवाई हो। ताकि भविष्य में कोई भी निर्दोष राजनीतिक साजिश का शिकार न हो,और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, यदि वे आरोपी नहीं थे,तो मालेगांव ब्लास्ट किसने किया था?
यदि ये लोग दोषी नहीं हैं,तो फिर असली दोषी कौन है? क्या देश उस सच्चाई से परिचित हो सकेगा जिसने 6 निर्दोष लोगों की जान ली और 100 से अधिक लोगों को घायल कर दिया?
“भगवा आतंकवाद” एक गढ़ी गई कहानी ?
2006 से लेकर 2010 तक का दौर देश की राजनीति में ‘हिंदू आतंकवाद’ या ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्दों के प्रवेश का दौर था। पहली बार ऐसा हुआ कि किसी मजहबी पहचान को सीधे आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश की गई। यह केवल राजनीतिक लाभ के लिए नहीं किया गया, बल्कि भारत की मूल सांस्कृतिक पहचान "हिंदू" को बदनाम करने का सुनियोजित प्रयास था।
आज जब अदालत ने सातों अभियुक्तों को निर्दोष बताया, तो इस पूरे नैरेटिव की बुनियाद ही हिल गई। अब यह जांच का विषय है कि उस समय किसके दबाव में जांच एजेंसियों ने इस दिशा में काम किया? क्या ये सब योजनाबद्ध था?
सात निर्दोषों को न्याय मिल गया, लेकिन उन 6 लोगों का क्या जो मालेगांव ब्लास्ट में मारे गए? और वे 100 से अधिक लोग जो घायल हुए,क्या उनकी पीड़ा को अब भी कोई नाम मिलेगा? जब असली गुनहगार अब भी बाहर घूम रहे हैं, तो इन पीड़ितों को न्याय कैसे मिलेगा?
मैं भारत सरकार और माननीय न्यायपालिका से विनम्र निवेदन करता हूं कि मालेगांव विस्फोट की पुनः स्वतंत्र जांच करवाई जाए, किसी भी राजनीतिक या वैचारिक प्रभाव से परे। असली दोषियों को ढूंढा जाए और उनके खिलाफ कठोरतम कार्रवाई की जाए, ताकि देश का विश्वास न्यायपालिका और व्यवस्था पर बना रहे।
आज का फैसला केवल सात व्यक्तियों की व्यक्तिगत मुक्ति नहीं है। यह उन लाखों-करोड़ों भारतीयों के आत्मसम्मान की पुनः स्थापना है,जिनकी आस्था, परंपरा और पहचान को "आतंकवाद" कहकर बदनाम किया गया। यह वक्त है आत्ममंथन का। देश को यह सोचना होगा कि कहीं हम अपनी न्याय प्रणाली को राजनीतिक हथियार तो नहीं बनने दे रहे?
हिंदू कोई संप्रदाय नहींभारत की आत्मा है। उसे बदनाम करने का अर्थ है भारत की आत्मा को लांछित करना। आज न्याय हुआ है,पर अधूरा है। अब देश को चाहिए पूर्ण सत्य।