हिन्दुस्तान वार्ता। ✍️ शाश्वत तिवारी
अयोध्या हमेशा केवल एक शहर नहीं रही,वह भारतीय मानस की धड़कन, सभ्यता की स्मृति और करोड़ों लोगों की आस्था की सबसे ऊँची अभिव्यक्ति रही है। यह वही भूमि है जहाँ मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम का चरित्र हजारों वर्षों से भारतीय चेतना को अनुशासन, धर्म और मानवता का मार्ग दिखाता रहा है। इसलिए जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में धर्म-ध्वजा की स्थापना के दौरान भावनाओं में डूबकर कांपते हाथों से पताका को स्थापित किया और उनकी आँखों से आँसू बह निकले, तो वह केवल एक व्यक्तिगत भावुक क्षण नहीं था। यह एक ऐसे राष्ट्र का प्रतीकात्मक दृश्य था जो अपनी सभ्यता,अपनी सांस्कृतिक जड़ों और अपने आत्म-सम्मान को पुनः स्थापित होते देख रहा था।
इस दृश्य ने भारत के राजनीतिक विमर्श, सांस्कृतिक मानस और राष्ट्रीय मनोविज्ञान में गहरे प्रश्न उठाए हैं। क्या एक प्रधानमंत्री का इस तरह भावविभोर होना उनकी व्यक्तिगत श्रद्धा का क्षण था? क्या यह भारत के राजनीतिक-धार्मिक संबंधों की नई परिभाषा है? क्या यह इतिहास में एक ऐसे अध्याय की शुरुआत है जिसमें भारतीय राज्य अपनी सांस्कृतिक आत्मा को फिर से स्वीकार कर रहा है? या फिर यह केवल राजनीति की प्रतीकात्मक प्रस्तुति थी?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर उस क्षण की अंतर-निहित संवेदनाओं, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और वर्तमान भारत की सांस्कृतिक पुनर्स्थापना को समझे बिना संभव नहीं।इसलिए यह लेख इन दृश्यों को विस्तृत रूप से देखने, समझने और विश्लेषित करने का प्रयास है, ताकि हम जान सकें कि मोदी के कांपते हाथ और बहते आँसू वास्तव में क्या कह रहे थे।
अयोध्या का इतिहास राजनीतिक संघर्ष, धार्मिक विवाद और अदालतों के फैसलों से गुज़रता हुआ अंततः 2024–2025 के कालखंड में एक ऐसी परिणति तक पहुँचा जहाँ यह विवाद समाप्त होकर निर्माण, पुनर्जीवन और आस्था के संगम का स्थल बन गया। धर्म-ध्वजा स्थापना के क्षण ने भारत को सांस्कृतिक दृष्टि से एक ऐसा गर्व प्रदान किया, जो लंबे समय से दबी भावनाओं, सामाजिक संघर्षों और सामूहिक आघातों के बीच कहीं खो गया था।
कई भारतीयों के लिए अयोध्या का संघर्ष केवल जमीन का मुद्दा नहीं था। वह आत्मसम्मान का प्रश्न था। वह यह प्रश्न था कि क्या भारत अपनी सांस्कृतिक स्मृतियों को सम्मान दे सकता है? क्या वह अपने देवताओं, अपने मूल्यों और अपने इतिहास को राजनीतिक तर्कों के आगे स्थायी रूप से नकार देगा ? इसीलिए जब प्रधानमंत्री ने धर्म-ध्वजा उठाई, तो वह क्षण केवल एक रस्म नहीं रह गया। वह एक सभ्यता की मुक्ति का क्षण था, जहाँ भारत ने अयोध्या को विवाद नहीं, बल्कि विरासत के रूप में पुनः स्थापित होते देखा।
मोदी के जीवन की पृष्ठभूमि को देखने पर यह दृश्य और अधिक अर्थपूर्ण हो जाता है। वह नेता जो वर्षों तक साधारण पृष्ठभूमि से उठकर राजनीति के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचा, जिसने रामायण, महाभारत और भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को अपने विचार में केंद्र में रखा। अयोध्या का यह क्षण उसके व्यक्तिगत अध्याय का भी चरम था।मोदी अपने शुरुआती भाषणों से लेकर आज तक स्वयं को “रामभक्त” के रूप में प्रतिबिंबित करते रहे हैं।
अयोध्या में ध्वजा स्थापना उनके लिए,राजनीतिक उपलब्धि से कहीं ज़्यादा आध्यात्मिक संतुष्टि का अवसर थी।उन हाथों का काँपना केवल भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं था। वह एक ऐसी यात्रा का परिणाम था, जिसे उन्होंने तीर्थों में साधुओं के साथ, संगठनों के बीच और राजनीतिक संघर्षों में जिया है। उनके आँसू उस जीवन भर की तपस्या, संघर्ष और प्रतीक्षा के प्रतीक थे।
एक नेता के आँसू अक्सर इतिहास की भाषा बन जाते हैं। वह क्षण जब उन्होंने पताका को थामते हुए अपनी आँखें बंद कीं—वह उन सभी भारतीयों के लिए भी भावनात्मक क्षण था जिन्होंने राम मंदिर आंदोलन को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण के रूप में देखा।
भारत का इतिहास भी यही बताता है कि इस भूमि में धर्म और राजनीति हमेशा पूरी तरह अलग नहीं रहे। अशोक से लेकर सम्राट हर्ष, शिवाजी, रानी दुर्गावती, महाराणा प्रताप तक राजसत्ता हमेशा सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों से प्रभावित होती रही।लेकिन स्वतंत्र भारत ने एक ऐसा राजनीतिक ढाँचा अपनाया, जिसमें धर्म को सार्वजनिक जीवन से दूर रखने की कोशिश की गई। परंतु वास्तविकता यह थी कि भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या धर्म को जीवन के हर मोड़ पर अनुभव करती है।
आज का भारत पुराने सेक्युलर-इंस्टीट्यूशन ढांचे से आगे बढ़कर सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद की ओर लौट रहा है। यह बदलाव केवल मोदी की वजह से नहीं है, बल्कि भारतीय समाज और युवाओं के भीतर लंबे समय से उठ रहे बदलाव की परिणति है।
अयोध्या में मोदी का भावुक होना इसी बड़े परिवर्तन की पुष्टि करता है। जो बताता है कि भारत का राजनीतिक वर्ग अब सांस्कृतिक प्रतीकों से दूरी नहीं, निकटता बनाना चाहता है।
कुछ इसे खतरनाक मानेंगे, कुछ इसे साहसिक,लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह भारत की राजनीति में गहरे बदलाव का संकेत है। स्वाभाविक है कि ऐसे क्षणों पर आलोचना भी होती है। विपक्ष के कुछ नेताओं और विचारकों ने कहा कि यह “राजनीतिक नाटक” है, एक “चुनावी मंचन” है या फिर “राज्य और धर्म के मेल से उत्पन्न खतरा” है।लेकिन इन आलोचनाओं के बावजूद यह भी सच है कि किसी भी नेता के भावनात्मक क्षण को केवल नाटक कह देना समाज की संवेदनाओं के साथ अन्याय है। क्या भारत के करोड़ों लोगों की आँखों में भी नाटक था?
क्या 500 वर्ष पुराने संघर्ष का अंत नाटक था ? क्या राम जन्मभूमि के निर्माण को देखने का जन-उत्साह मात्र राजनीतिक था?यह कहना कि यह सब “डिज़ाइन” था, भारत की सांस्कृतिक चेतना को समझने में असफलता है।वास्तव में यह क्षण राजनीति के पंखों से कहीं आगे जाकर धर्म, इतिहास और राष्ट्रीयता के साझा बिंदु पर खड़ा था। धर्म-ध्वजा भारतीय परंपरा में विजय, नैतिकता, धर्मपालन और राष्ट्र-निष्ठा का प्रतीक रही है। यह वही प्रतीक है जिसे अयोध्या में भगवान राम के राजतिलक के समय लगाया गया था। अयोध्या में स्थापित ध्वजा तीन प्रमुख संदेश देती हैं - कैथोलिक देशों का वेटिकन हो या इस्लामी देशों की मस्जिदें, चीन की परंपरा-आधारित व्यवस्था हो, हर राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक पहचान के साथ खड़ा रहता है। भारत पहली बार फिर उसी दिशा में लौट रहा है।
श्रीराम केवल धार्मिक पात्र नहीं, संस्कृति के आदर्श, न्याय,शासन और मर्यादा के मॉडल हैं। धर्म-ध्वजा यह संदेश देती है कि भारत अपने शासन और समाज में मूल्यों को केंद्र में रखना चाहता है। ध्वजा किसी जाति, किसी दल, किसी संस्था की नहीं, पूरे भारत की है। भारत के गाँवों, शहरों, महानगरों में टीवी स्क्रीन पर लोग जब मोदी को भावुक होते देख रहे थे, तो वे अपने मन में उसी भाव में डूब रहे थे। बुज़ुर्ग महिलाओं की आँखें नम थीं। युवा फोन निकालकर वीडियो बना रहे थे। घरों में प्रसाद बाँटा जा रहा था।
अन्य धर्मों के कई लोग भी इस क्षण को भारत की सांस्कृतिक विजय के रूप में देख रहे थे।यह दृश्य राष्ट्र के सामूहिक मनोविज्ञान को गहराई से छू गया।क्योंकि जनता इस क्षण में केवल प्रधानमंत्री को नहीं देख रही थी, वे अपने इतिहास को पुनर्जीवित होते देख रहे थे। सवाल यह है कि इस भावनात्मक दृश्य का भारत की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
राम मंदिर और अयोध्या के पुनर्जागरण पर भाजपा का नैरेटिव और अधिक मजबूत हुआ,वहीं दूसरों ओर, विपक्ष कठिन मानसिक स्थिति में पहुँचेगा, क्योंकि भारत के अधिकांश मतदाता धार्मिक प्रतीकों से गहरा लगाव रखते हैं। विरोध करना जोखिमभरा है,समर्थन करना उनकी राजनीति के विपरीत है।
2026–27 की राजनीति सांस्कृतिक नैरेटिव के इर्द-गिर्द घूमेगी। युवाओं की नई पीढ़ी अपने इतिहास पर गर्व की भावना से राजनीतिक निर्णय लेने लगेगी। इस विश्लेषण में यह बात महत्वपूर्ण है कि हम केवल एकतरफा दृष्टिकोण न रखें। हाँ, भारत सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ओर बढ़ रहा है। परंतु साथ ही यह भी आवश्यक है कि, धार्मिक प्रतीकों का उपयोग विभाजन के लिए न हो बहु संस्कृतिवाद की भारतीय परंपरा को सम्मान मिले। राजनीतिक लाभ के लिए आस्था का अति-दोपयोग न हो और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु, धर्म और संविधान का संतुलन बना रहे। मोदी जी के आँसू इस संतुलन को बिगाड़ते नहीं,परंतु सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी है कि यह संतुलन बना रहे।
अयोध्या में धर्म-ध्वजा स्थापना के दौरान,भावविभोर प्रधानमंत्री का दृश्य,भारत की राजनीति में, भारत की अस्मिता में और भारत की सांस्कृतिक चेतना में, एक मील का पत्थर बन चुका है। यह क्षण बताता है कि, भारत अपनी जड़ों से कटकर नहीं, बल्कि उन्हें स्वीकार कर आगे बढ़ेगा। धर्म आस्था है, विभाजन का कारण नहीं। राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि भावनाओं, इतिहास और संस्कृति से बनी ऊर्जा है। मोदी जी के कांपते हाथ और बहते आँसू भारत के हर नागरिक को यही संदेश दे रहे थे कि,“सभ्यता को पुनः प्राप्त करने की कीमत संघर्ष है और उसे जीने की पहचान भावनाएँ हैं।”
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

