मूर्ति पूजा के पीछे का विज्ञान : संकलन "गौसेवक" खोजी बाबा



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अभी धूमधामसे गणेश उत्सव मनाया जा रहा है। फिर दुर्गा का उत्सव मनाया जाएगा। हिंदुस्तान में सदियों से इन मूर्तियों की पूजा की जाती है, लेकिन यह प्रश्न कोई नहीं पूछता कि इन मूर्तियों की पूजा आखिर क्यों की जाती है? मूर्ति पूजा के पीछे बहुत ही गहरे अर्थ हैं जिन्हें समझना सार्थक होगा।


हिंदू धर्म के सबसे कठिन और अस्पष्ट अवधारणाओं में से एक है मूर्ति पूजा अक्सर इसे गलत समझा गया और गलत व्याख्या की गई।


आखिर क्यों हिंदू मूर्तियों की पूजा करतें है ? और वे वास्तव में इन मूर्तियों को कैसे देखते हैं ? आखिर मूर्ति क्या है ?


एक देवता की छवि जिसका उद्देश्य पूजा है उसी को ही हिन्दू धर्म में मूर्ति कहते हैं। हिंदू धर्म में मूर्तियों को प्रतिमा, विग्रह भी कहा जाता है।


१.) प्रतिमा- यह एक संस्कृत शब्द है जिसका मतलब है किसी देवता की छवि या समानता।


२.) मूर्ति- यह एक संस्कृत शब्द है जिसका मतलब है किसी भी प्रतिबिम्ब को साकार रूप में अभिव्यक्ति।


३.) विग्रह- यह एक संस्कृत शब्द है जिसका तात्पर्य है आकार यह एक देवता की पवित्र छवि या चित्रण करने के लिए संदर्भित होता है, की हिंदू धर्म में मूर्तियों के स्थिर प्रतीकों का एक हिस्सा हैं ।


भारत में मूर्तियां बनाने का रिवाज तो है लेकिन अन्य संप्रदायों में यह माना जाता है कि हिन्दू धर्म में रहने वाले लोग इन मूर्तियों की पूजा कर अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं, परंतु यह एक भ्रामक तथ्य है। दरअसल मूर्ति बनाना और उसके समक्ष रहकर ध्यान करना एक विज्ञान है। वैज्ञानिक आधार पर एक विशिष्ट मूर्ति का निर्माण कर उसमें ऊर्जा भरी जाती है।


भिन्न-भिन्न प्रकार की मूर्तियां, भिन्न-भिन्न संरचनाओं से बनी होती हैं और आठ चक्रों का उनमें समावेश किया जाता है। मूर्ति कला एक ऐसा विज्ञान है, जिसके द्वारा उन मूर्तियों में सकारात्मक ऊर्जाओं को इस तरह पिरोया जाता है| कि जिस घर में वो रहती हैं उस घर के लोगों के जीवन को बेहतर करती हैं। यहां तक कि मंदिरों की संरचना भी पूरी तरह वैज्ञानिक आधार वाली होती है। यहां वर्तमान समय में बन रहे मंदिरों का जिक्र नहीं बल्कि प्राचीन समय में निर्मित मंदिरों का परिचय दिया जा रहा है। आप यकीन नहीं करेंगे लेकिन प्राचीन समय मंदिर बनाने का उद्देश्य केवल मूर्तियों की पूजा तक ही सीमित नहीं था।इसके अलावा परिक्रमा करने का स्थान, गर्भ गृह आदि सब बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।


प्राचीन समय में कभी भी यह नहीं कहा जाता था कि हमें मंदिर जाकर मूर्ति की पूजा करनी चाहिए और दान करना चाहिए। यह तो भौतिकवाद से ग्रस्त आज के दौर का सिस्टम बन गया है।पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार हमें मंदिर में जाकर कुछ देर बैठना चाहिए और ध्यान करने की कोशिश करनी चाहिए। इससे मंदिर की सीमा में मौजूद सकारात्मक शक्तियां हमारे शरीर और मस्तिष्क में प्रवेश करती है।किसी नए काम को शुरू करने से पहले या किसी स्थान पर जाने से पहले यह कहा जाता है कि मंदिर के दर्शन अवश्य करने चाहिए। इसके पीछे मान्यता यह है कि मंदिर के वातावरण में मौजूद सकारात्मक ऊर्जा आपके मस्तिष्क को स्वच्छ और सजीव कर, आपको सही दिशा में सोचने के लिए विवश करे। वास्तविक रूप में मंदिरों का निर्माण किसी देवस्थल के रूप में पूजा या दान-पुण्य के लिए नहीं किया गया था। यह तो ऊर्जा को एकत्रित करने के उद्देश्य से बनाए जाते थे।


इसीलिए जिन लोगों ने भी मूर्ति विकसित की होगी, उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु बनाया था...मूर्ति-पूजा शब्द सेल्फ कंट्राडिकटरी है। इसीलिए जो पूजा करता है वह हैरान होता है कि मूर्ति कहां? और जिसने कभी पूजा नहीं की वह कहता है कि इस पत्थर को रख कर क्या होगा? इस मूर्ति को रख कर क्या होगा? ये दो तरह के लोगों के अनुभव हैं, जिनका कहीं तालमेल नहीं हुआ है। और इसीलिए दुनिया में बड़ी तकलीफ हुई है।


आप मंदिर के पास से गुजरेंगे तो मूर्ति दिखाई पड़ेगी, क्योंकि पूजा के पास से गुजरना आसान नहीं है। तो आप कहेंगे, इन पत्थर की मूर्तियों से क्या होगा? लेकिन जो उस मंदिर के भीतर कोई एक मीरा अपनी पूजा में लीन हो गई है, उसे वहां कोई भी मूर्ति नहीं बची। पूजा घटित होती है, मूर्ति विदा हो जाती है। मूर्ति सिर्फ प्रारंभ है। जैसे ही पूजा शुरू होती है, मूर्ति खो जाती है।


तो वह जो हमें दिखाई पड़ती है वह इसीलिए दिखाई पड़ती है कि हमें पूजा का कोई पता नहीं है। और दुनिया में जैसे-जैसे पूजा कम होती जाएगी, वैसे-वैसे मूर्तियां बहुत दिखाई पड़ेंगी। और जब बहुत मूर्तियां दिखाई पड़ेंगी और पूजा कम हो जाएगी तो मूर्तियों को हटाना पड़ेगा, क्योंकि पत्थरों को रख कर क्या करिएगा? उनका कोई प्रयोजन नहीं है। साधारणतः लोग सोचते हैं कि जितना पुराना आदमी होता है, जितना आदिम, उतना मूर्ति-पूजक होता है। जितना आदमी बुद्धिमान होता चला जाता है, उतना ही मूर्ति को छोड़ता चला जाता है। सच नहीं है यह बात। असल में पूजा का अपना विज्ञान है। वह जितना ही हम उससे अपरिचित होते चले जाते हैं, उतनी ही कठिनाई होती चली जाती है।


इस संबंध में एक बात और आपको कह देना उचित होगा। हमारी यह दृष्टि नितांत ही भ्रांत और गलत है कि आदमी ने सभी दिशाओं में विकास कर लिया है।

ये मूर्तियां केवल प्रतीक हैं, इनकी आरती उतारने से और इन पर फूल मालाएं चढ़ाने से कुछ नहीं होगा। इनके प्रतीकों को समझें। गणेश हैं विद्या के प्रतीक, उनका वाहन है चूहा जो कि हमेशा काटता या कुतरता है, बुद्धि का हथियार है तर्क और कुतर्क जो हमेशा मस्तिष्क को कुरेदते रहते हैं। उन पर नियंत्रण पाने पर ही बुद्धि विकसित होती है। इसी प्रकार दुर्गा या काली है स्त्री की शक्ति। यह शक्ति ही सभी के अंदर छिपे हुए दानव को विनष्ट कर सकती है।


इन संकेतों को समझकर यदि हम इन देवताओं के गुण अपने भीतर लाएं तो इनकी पूजा करने का लाभ होगा। इन्हें देखकर हमारी शक्तियों का स्मरण हो और हम निश्चय कर लें कि हमें दीन-हीन रहकर दुखी जीवन नहीं जीना है, हममें जो शक्ति है उसे जगाना है।


मूर्ति सिर्फ प्रारंभ है, एक सेतु है- आकार और निराकार के बीच। पूजा का अर्थ है हमारा पूरा ध्यान अब इस मूर्ति पर है, इस मूर्ति के रहस्य पर है। अब बाहर का संसार खो गया। इस मूर्ति के गुणों को जैसे-जैसे हम अपने भीतर समाते चले जाएं वैसे-वैसे मूर्ति से हमारा संबंध कम होता चला जाएगा और निराकार से जुड़ता चला जाएगा। इसलिए हर मूर्ति की स्थापना होती है और उसकी समग्रता से पूजा करने के बाद वह विसर्जित की जाती है।


क्यों? क्योंकि एक खास समय के बाद मूर्ति की उपयोगिता समाप्त हुई। मूर्ति एक बहाना थी, एक रास्ता थी स्वयं तक आने का। अब हम सीधे स्वयं से जुड़ सकते हैं। अगर मन की ऐसी स्थिति बनती है तभी मूर्तिपूजा सार्थक हुई। लेकिन इस प्रकार की पूजा कोई नहीं करता। मूर्ति में पिघलकर एक हो जाने वाले कोई मीरा, कोई रामकृष्ण होंगे, बाकी लोग तो मूर्ति को सरकारी अफसर समझकर उससे अपनी इच्छाएं पूरी करने की मांग करते हैं।


भारत में यह हाल है कि रहने के लिए घर नहीं हैं, लेकिन मूर्तियों के लिए मंदिर बेशुमार हैं। यह इसी बात का प्रतीक है कि पूजा खो गई है, सिर्फ पत्थर रह गए। पूजा को पुन: सीखना होगा ताकि मनुष्य की गरिमा लौट आए। घर ही मंदिर हो जाए।


मूर्ति के पत्थर से तुम्हें कोई लाभ इसीलिये नहीं होता, क्योंकि तुमने मूर्ति का दुरुपयोग किया है।

मूर्ति थी ही इसीलिये, कि उसका प्रयोग तुम निराकार में प्रवेश के लिये करो। लेकिन तुम मूर्ति से ही चिपककर रह गये। तब संतों को हमें याद दिलाना पड़ा, कि मूर्ति पुल है, और पुल पर कभी घर नहीं बनाते।

पुल को तो पार करते हैं।

तुमने पुल पर ही पिकनिक मनाना शुरु कर दिया। पार ही नहीं कर रहे। ये मूर्तिपूजा ही सब कुछ हो गयी। लेकर घूम रहे हैं इधर-उधर। भूल ही गये कि मूर्ति का उद्देश्य क्या था?

आइए हम सभी भारत को भारतीयता की मान्यताओं के आधार पर फिर से खड़ा करने में अपना योगदान दें।


भारतीय संस्कृति को मेरा प्रणाम 🙏🏻


                     - "गौसेवक" पं. मदन मोहन रावत

                                    "खोजी बाबा"


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