श्री लिङग महापुराण सुभाषित मणिमाला

 

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आत्मवत्सर्वभूतानां हितायैव प्रवर्तनम्।

अहिंसैषा समाख्याता या चात्मज्ञानसिद्धिदा।। 


भावार्थ : सभी प्राणियों में आत्मवत् दृष्टि रखकर उनके हित के लिए प्रवृत्त रहने को अहिंसा कहा गया है। इस अहिंसा से आत्मज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है।


भोगेन तृप्तिर्नैवास्ति विषयाणां विचारत: ।

तस्माद्विराग: कर्तव्यो मनसा कर्मणा गिरा।।


भावार्थ : विषयों के भोग से इंद्रियों की तृप्ति नहीं होती, अतएव विचारपूर्वक मन, वाणी तथा कर्म से भोगों के प्रति विरक्ति का भाव रखना चाहिए ।


पिता माता च पुत्राश्च पौत्रा: श्वशुर एव च।

एते न बन्धवा: स्त्रीणां भर्ता बन्धु: परा गति: ।।


भावार्थ : पिता, माता , पुत्र , पौत्र, श्वशुर --  ये स्त्रियों के बंधु नहीं होते हैं; अर्थात यह सब उनका सदा के लिए संपूर्ण हितसंपादन करने में समर्थ नहीं होते , केवल पति ही उनका बंधु तथा परम गति होता है ।


प्रतिकूलमतिश्चैव न स पुत्र: सतां मत:।।

मातापित्रोर्वचनकृत्सद्भि: पुत्र: प्रशस्यते।

स पुत्र: पुत्रवद्यस्तु वर्तते मातृपितृषु ।।


भावार्थ : जो (पिता के प्रति) विपरीत बुद्धिवाला हो , वह सज्जनों के द्वारा पुत्र नहीं माना गया है । सज्जन लोग माता-पिता के वचनों को मानने वाले पुत्र की प्रशंसा करते हैं । (वास्तव में) वही पुत्र है , जो माता पिता के साथ पुत्रभाव में स्थित होकर व्यवहार करता है।


यदा न कुरते भावं सर्वभूतेषु पापकम्।।

 कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा।

यदा परान्न बिभेति परे चास्मान्न बिभ्यति।।

यदा न निन्देन्न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा।

 

भावार्थ : जब मनुष्य के सभी प्राणियों के प्रति मन , वचन तथा कर्म से पापमय भाव नहीं रखता है , तब वह ब्रह्म को प्राप्त होता है । जब वह दूसरों से डरता नहीं , दूसरे लोग भी उससे डरते नहीं ; जब वह (दूसरे की) निंदा नहीं करता तथा उससे द्वेष नहीं करता , तब वह ब्रह्म को प्राप्त होता है ।


सा हानिस्तन्महच्छिद्रं स मोह: सा च मूकता ।।

यत्क्षणं वा मुहूर्तं वा शिवमेकं न चिन्तयेत्।

भवभक्तिपरा ये च भवप्रणतचेतस: ।।

भवसंस्मरणोद्युक्ता न ते दु:खस्य भाजनम् ।


भावार्थ :  यदि कोई एक क्षण या एक मुहूर्त भी शिव का चिंतन नहीं करता , तो वही (उसकी) महान् हानि है , वही उसका दोष है , वही उसका अज्ञान है और वही उसकी मूकता है । जो लोग शिवभक्ति में संलग्न हैं , अन्त:करण शिव को प्रणाम करने वाले हैं तथा भगवान् शिव के स्मरण में लगे हुए हैं , वे दु:ख के पात्र नहीं होते।


मनसा कर्मणा वाचा सर्वदाहिंसकं नरम्।।

रक्षन्ति जन्तव: सर्वे हिंसकं बाधयन्ति च ।

मनसा कर्मणा वाचा सर्वभूतहिते रता : ।।

दयादर्शितपन्थानो रूद्रलोकं व्रजन्ति च ।


भावार्थ : मन , वाणी तथा कर्म से जो किसी की हिंसा नहीं करता अर्थात् उन्हें दुख नहीं पहुंचाता , ऐसे अहिंसक व्यक्ति की सभी प्राणी सदा रक्षा करते हैं और जो हिंसक है , उसे (सभी) कष्ट पहुंचाते हैं । मन , वचन तथा कर्म से सभी प्राणियों के हित में संलग्न और दया दृष्टि के मार्ग पर चलने वाले रुद्रलोक को जाते हैं ।


न विषं कालकूटाख्यां संसारो विषमुच्यते।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन संहरेत सुदारूणम् ।।


भावार्थ : कालकूट नामक विश (वास्तव में) विश नहीं है , बल्कि संसार ही विष कहा जाता है । अतः पूर्ण प्रयत्न से इस संसार रूपी अत्यंत भीषण विष को नष्ट करना चाहिए। अर्थात् संसार में मिथ्यात्व का का भाव रखना चाहिए।


यथा मृगो मृत्युभयस्य भीतो

       उच्छिन्नवासो न लभेत निद्राम् ।

एवं यतिध्यीनपरो महात्मा

        संसारभीतो न लभेत निद्राम् ।।


भावार्थ : जैसे उड़ते हुए निवासवाला मृग मृत्यु से भयभीत होकर निद्रा ग्रहण नहीं कर पाता , ठीक उसी प्रकार ध्यानपरायण महात्मा सन्यासी संसार से भयभीत होकर निद्रा ग्रहण नहीं कर पाता अर्थात प्रमाद रहित होकर सर्वथा सजग रहता है। (८६।४२)


ज्ञानं धर्मोदद्भवं साक्षाज्ज्ञानाद्वैराग्यसम्भव: ।

वैराग्यात्परमं ज्ञानं परमार्थप्रकाशकम् ।।


भावार्थ : धर्म से ज्ञान उत्पन्न होता है , साक्षात् ज्ञान से वैराग्य उत्पन्न होता है और वैराग्य से परमार्थप्रकाशक परम ज्ञान उत्पन्न होता है अर्थात् ज्ञान के अनुसार व्यवहार में प्रवृत्ति होने लगती है। (८६ । ४४)


एकेनैव तु गन्तव्यं सर्वमुत्सृज्य वै जनम् ।

एकेनैव तु भोक्ताव्यं तस्मात्सुकृतमाचरेत् ।।

न ह्योनं प्रस्थितं कश्चिद् गच्छन्तमनुगच्छति ।

यदनेन कृतं कर्म तदेनमनुगच्छाति ।।


भावार्थ :  सभी लोगों को छोड़कर जीव को अकेला ही जाना पड़ता है और अकेला ही भोगना पड़ता है । अतः उत्तम आचरण करना चाहिए। ( मृत्यु के पश्चात् )  प्रस्थान करने वाले इस जीव के पीछे - पीछे कोई भी नहीं जाता है ; इस जीव के द्वारा जो कर्म किया गया होता है , वही इसके साथ जाता है । ( ८८ । ६२ । ६३ )


मानावमानौ द्वावेतौ तावेवाहुविषामृते ।

अवमानोङमृतं तत्र सन्मानो विषमुच्यते ।।


भावार्थ : मान तथा अपमान - ये विष  तथा अमृत कहे गए हैं । उनमें अपमान अमृता तथा सम्मान विष कहा जाता है । ( ८९ । ४ )


चक्षु:पूतं चरेन्मार्गं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।

सत्यपूतं वदेद्वाक्यं मन:पूतं समाचरेत् ।।


भावार्थ : भली-भांति नेत्र से देखकर मार्ग पर चलना चाहिए , वस्त्र से पवित्र किए गए अर्थात् छाने हुए जल को पीना चाहिए सच्चे से पवित्र वचन बोलना चाहिए , सत्य से पवित्र वचन बोलना चाहिए और मन से पवित्र प्रतीत होने वाले आचरण को करना चाहिए । ( ८९ । ७ )


सदाचाररता: शान्ता: स्वधर्मपरिपालका: ।

सर्वाँल्लोकान् विनिर्जत्य ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते ।।


भावार्थ : जो सदाचारपरायण , शांत ( अंतः करण की प्रवृत्तियों को निर्देशित कर लेने वाले ) तथा अपने धर्म का पालन करने वाले हैं , वह सभी लोकों को जीतकर ब्रह्मलोक चले जाते हैं । ( ८८ । ३१ )


कैतवं वित्तशाठ्यं च पैशुन्यं वर्जयेत्सदा ।

अतिहासमवष्टम्भं a लीलास्वेच्छाप्रवर्तनम् ।।

वर्जयेत्सर्वयत्नेन गुरूणामपि सन्निधौ ।

तद्वाक्यप्रतिकूलं च अयुक्तं वै गुरोर्वच:।।

न वदेत्सर्वयत्नेन अनिष्टं न स्मरेत्सदा ।


भावार्थ : धूर्तता , धन की कृपणता  तथा पिशुनता ( परनिन्दा ) - का सदा त्याग करना चाहिए । गुरूजनों के सानिध्य में अत्यधिक हँसना , अशिष्टता तथा मनमाना कार्य करना - इन सबका पूर्ण प्रयत्न से परित्याग करना चाहिए । गुरू की आज्ञा के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए और पूर्ण प्रयत्नपूर्वक कभी भी उनका अनिष्ट नहीं सोचना चाहिए । ( ८९ । ३७ । ३९ )


यतीनामासनं वस्त्रं दण्डाद्यं पादुके तथा ।।

माल्यं च शयनस्थानं पात्रं छायां च यत्नत: ।

यज्ञोपकरणाङ्गं च न स्पृशेद्वै पदेन च ।।

देवद्रोहं गुरूद्रोहं न कुर्यात्सर्वयत्नत: ।


भावार्थ : यतियों ( सन्यासियों ) - के आसन , वस्त्र , दण्ड , खड़ाऊँ , माला , शयनस्थान , पात्र , छाया तथा यज्ञ के उपकरणों को पैरों से कभी नहीं छूना चाहिए । देवताओं तथा गुरुजनों से द्रोह न हो , इसका पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए । ( ८९ । ३९ --४१ )


                   - "गौसेवक" पं. मदन मोहन रावत

                                       "खोजी बाबा"


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