बाबा दीप सिंह (संधू गौत्री)। वे सिर धड़ से अलग होने पर भी लड़ते रहे थे।


सन् 1757 ई. में अहमद शाह अब्दाली ने नगर श्री अमृतसर पर कब्जा कर श्री हरिमंदर साहिब को ढहा दिया और अमृत सरोवर को मिट्टी से भर दिया। यह खबर मिलते ही बाबा जी का खून खौल उठा। 75 वर्ष की वृद्धावस्था होने के बावजूद आपने खंडा उठा लिया।

तलवंडी साबो से चलते समय बाबा जी के साथ सिर्फ आठ सिख थे, परंतु रास्ते में और सिखों के आकर मिलते रहने से श्री तरनतारन तक पहुंचते-पहुंचते सिखों की संख्या पांच हजार तक पहुंच गई। 


श्री तरनतारन से दस किलोमीटर दूर गोहलवड़ गांव के निकट सिखों और अफगान सिपहसालार जहान खान के लश्कर में जबरदस्त जंग शुरू हो गई। श्री हरिमंदर साहिब की बेअदबी से क्रोधित सिखों ने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए।


अफगानों को गाजर-मूली की तरह काटते हुए बाबा दीप सिंह जी आगे बढ़ रहे थे कि तभी एक घातक वार बाबा जी की गर्दन पर पड़ा। बाबा जी की गर्दन कट गई और वह युद्ध भूमि में गिर पड़े। यह देख कर एक सिख पुकार उठा : 

प्रण तुम्हारा दीप सिंघ रहयो। गुरुपुर जाए सीस मै देहऊ। मे ते दोए कोस इस ठै हऊ।


अर्थात बाबा दीप सिंह जी, आपका प्रण तो गुरु नगरी में जाकर शीश देने का था पर वह तो अभी दो कोस दूर है।


यह सुनते ही बाबा दीप सिंह जी फिर उठ खड़े हुए। दाहिने हाथ में खंडा लिया, बाएं हाथ से शीश संभाला और पुन: युद्ध आरंभ कर दिया। बाबा जी युद्ध करते-करते गुरु की नगरी तक जा पहुंचे। बाबा जी के साथ-साथ अनेक सिख शहीद हो गए, परंतु श्री हरिमंदर साहिब की बेअदबी का बदला ले लिया गया।


बाबा दीप सिंह जी का अंतिम संस्कार श्री अमृतसर नगर में चाटीविंड दरवाजे के पास गुरुद्वारा रामसर साहिब के निकट किया गया। आज इस पवित्र स्थान पर गुरुद्वारा श्री शहीदगंज साहिब सुशोभित है। बाबा जी ने श्री हरिमंदर साहिब की परिक्रमा में जहां शीश भेंट किया था, वहां भी गुरुद्वारा साहिब निर्मित है। बाबा जी का खंडा श्री अकाल तख्त साहिब में सुशोभित है।


साभार-आवाज ए शहर