माताएं एवं बहनें रक्षित करती है दो कुलों की मर्यादा: जीयर स्वामी जी

 सासाराम वार्ता(बिहार) ✍️रवींद्र दूबे



(परशुराम ने सिर्फ दुष्ट हरिहो क्षत्रिय वंश का किया था विनाश) (पूजनीय एवं आदरणीय का नाम बहुवचन में लें) 

(तिरस्कृत संबोधन से होता है संस्कार क्षय)


माताओं एवं बहनों को विशेष आचरण से युक्त जीवन जीना चाहिए। इनपर दो कुलों की मर्यादा का गुरूत्तर दायित्व होता है। इनके आचरण और कार्यशैली से दो कुलों का मान-अपमान प्रभावित होता है। उपरोक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी ने चंदवा चातुर्मास्य ज्ञान यज्ञ में भागवत कथा के तहत परशुरामावतार की चर्चा करते हुए कहीं। ऋतिक ऋषि के पौत्र परशुराम जी 16वॉ अवतार हैं। ऋतिक ऋषि की पत्नी सत्यवति गादी (गाजीपुर) नरेश की पुत्री थीं गादी नरेश की शर्त के अनुसार एक हजार सफेद घोड़ा देकर ऋतिक ऋषि ने सत्यवति से विवाह किया।


स्वामी जी ने कहा कि सीता के स्वयंवर में धनुष तोड़ने की एवं द्रौपदी के स्वयंवर में मछली की आँख में तीर मारने की शर्त था । इन स्वयंवरों में अन्तर्जातीय विवाह, का दोष नहीं लगता, क्योंकि स्वयंवर में कोई भी भाग ले सकता है लेकिन अन्य शादियों में इसका उदाहरण कुतर्क होगा। सत्यवति और उनके पिता गादी नरेश को संतान नहीं थी। सत्यवति अपने पति ऋतिक ऋषि से स्वयं एवं पिता के वंश वृद्धि का आग्रह किया। ऋतिक ऋषि ने यज्ञ का आयोजन कर ब्राह्मण और क्षत्रिय अंश का चरू (प्रसाद) दिया। भूलवश सत्यवति ने क्षत्रिय अंश का चरू स्वयं और माता को ब्राह्मण अंश का चरू ग्रहण करा दिया। ऋषि चरू में बदलाव की जानकारी पर दुखित हुए, लेकिन सत्यवति की भूल और आग्रह पर कहा कि तुम्हारा पुत्र तो ब्राह्मण अंश का लेकिन पौत्र क्षत्रिय अंश का होगा। सत्यवति के पुत्र यमदग्नि ऋषि और पौत्र परशुराम जी (क्षत्रिय अंश के प्रतिफल) हुए। गादी नरेश के विश्वामित्र (ब्राह्मण अंश) हुए। सत्यवति के आग्रह पर ही दोनों कुलों में वंश वृद्धि हुई।


स्वामी जी ने कहा कि स्त्रियाँ दो कुलों की आभूषण हैं। राजा जनक तापस वेश में सीता जी को देख बोले थे "पुत्री पवित्र किये कुल दोउ, सुजस धवल जग कहु सब कोउ। स्वामी जी ने कहा कि पूजनीय एवं आदरणीय के संबोधन में बहुबचन का प्रयोग करना चाहिए। एक बचन और दो बचन नहीं। उनसे जुड़े सभी कारकों में बहुबचन का प्रयोग होना चाहिए। भारतीय संस्कृति में इसका पालन होता रहा है। प्रसंगवश उन्होंने कहा कि वर्तमान दौर में औरतें अपने पति का नाम लेकर पुकारती हैं। इससे परिवार का संस्कार बिगड़ता है और लक्ष्मी भी प्रभावित होती हैं। उन्होंने कहा कि परशुराम जी ने सभी क्षत्रिय वंश का नहीं, अपने पिता यमदग्नि ऋषि का सर काटने वाले सहस्त्रार्जुन के हरिहोवंश के दुष्ट राजाओं का विनाश किया था। वे अपनी भूमि दान देने के कारण मंदराचल पर्वत पर रहते थे।


स्वामी जी ने कहा कि मन, वाणी एवं शरीर से किसी की अहित की भावना नहीं होनी चाहिए। मनुष्य के जीवन में संग भी अच्छा होना चाहिए. क्योंकि संग का बहुत बड़ा प्रभाव होता है। मनुष्य की संगति से उसके स्वभाव का अनुमान लगाया जाता है। सज्जन व्यक्ति भुलकर भी दुर्जनों की संगत्ति पसंद नहीं करते।