जनधन हानि के बीच अर्थव्यवस्था,सरकार और हम

 


प्रेम शर्मा,लखनऊ।

कोरोना संक्रमण ने अन्य देशों की तुलना में भारत की आमजनता के सामने समस्याओं और असुरक्षित भविष्य का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा कर दिया है जिसे पार कर पाना आम जनमानस के बस में नही है। इस पहाड़ को पार करने के लिए भले ही सरकार अप्रत्यक्ष रूप से जो सीढ़ी देने का प्रयास कर रहा है वह नाकाफी है। या यू कहा जा सकता है कि कोई भी सरकार इसकी भरपाई नही कर सकती। अगर बाॅत यह की जाए कि एक अनार और सौ बीमार वाली स्थिति है तो इसका मंथन सरकार बनाने से पूर्व दलों को करना चाहिए। देश में जब पार्टी चुनाव मैदान में आती है तो वह जनसंख्या की बाॅत नही करती बल्कि इस बाॅत पर ही सत्ता हासिल करती है कि वह देश की जनता को उनका हक देगी और दिलाएंगी। ऐसे में बार बार यह कहकर कोई सरकार पल्ला नही झाॅड सकती कि संसाधन जनसंख्या अनुपात में कम हेै। खैर हम बाॅत देश के अस्सी प्रतिशत उन जनमानस की कर रहे है जिनकी मासिक आमदनी पाॅच से सात या दस हजार के अन्दर है। इस संवर्ग के लिए वर्तमान हालात बहुत बद्त्तर हो चले हेै। पिछले एक साल में कोरोना संक्रमण के बीच ‘‘ ताउते ’’ और ‘‘ यास ’’ तुफान ने देश की अर्थ व्यवस्था को बहुत बुरी तरह से झकझौर दिया है। आॅकडों पर नजर डाले तो तीन साल में 20 लाख करोड़ के उत्पादन का नुकसान होने वाला है।

मतलब साफ यह कि इससे नौकरी, आय, मजदूरी,बचत, आश्रय, निवेश, शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं से लेकर बहुत कुछ प्रभावित हुआ और होने वाला है। इस बीच तेल के खेल ने आम जनमानस की कमर तोड़ दी है। खाने के तेल और चलाने के तेल की महंगाई का व्यापक असर आममानस के जीवन पर पड़ा है। देश की वित्त मंत्री सीतारमण मार्च माह में कह चुकी थी कि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए लेकिन अब तक ऐसा नही हो पाया। खैर अब बाॅत कर ले देश की अर्थ व्यवस्था कि जिससे देश की आमजनमानस को कुछ राहत मिल सकती है तो उसकी स्थिति बिगड़ी चुकी है। आरबीआई मान चुका है कि कोरोना संक्रमण काल में बिगड़ी अर्थ व्यवस्था का असर लम्बे समय तक रहेगा यानि अनिश्चित काल तक, इस बीच ताउते और यास तुफान की तबाही से गई जानों और अरबों की सम्पत्ति तबाही के बीच कोरेाना की शिकार बनी जिन्दगी के आंकड़ों पर चर्चा न करके हम पिछले एक साल से ज्यादा वक्त से चल रही कोरोना महामारी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है। महामारी से जो देश सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, उनमें तो भारत है ही, जिन देशों की अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है, उनमें भी भारत का नंबर बहुत ऊपर है। ऐसे में यह सवाल भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि अर्थव्यवस्था को कैसे संभाला जाए ?

 ऐसी स्थिति में इन दो मुद्दो पर चर्चा होने लगी हेै। पहला एक मुद्दा यह है कि अर्थव्यवस्था की तरक्की इस बात पर निर्भर है कि हम कोरोना से निपटने के लिए क्या रणनीति बनाते हैं। उनका कहना है कि अगर हम अगस्त तक लगभग 15 करोड़ टीके हर महीने लगाने की स्थिति में पहुंच जाएं, तो यह भरोसा हो सकता है कि कोरोना पर हम नियंत्रण कर लेंगे और अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। दूसरा मुद्दा यह है कि इस वक्त सरकार को अपनी मौद्रिक नीति को और उदार बनाना चाहिए। सरकार को लोगों, खासकर कमजोर वर्गों की आर्थिक सहायता करनी चाहिए। इसके लिए नोट छापने पड़ेंगे, पर अगर यह नोट छापने का सही वक्त नहीं है, तो फिर कौन सा होगा ? एक तरफ, सरकार को गरीब लोगों के हाथों में सीधे पैसे पहुंचाने चाहिए, तो दूसरी ओर उद्योगों की मदद के लिए पिछले साल कर्ज का जो पैकेज घोषित हुआ था, उसे तीन लाख करोड़ से बढ़ाकर पांच लाख करोड़ रुपये कर देना चाहिए। जरा इस आकड़े पर गौर करे कि कोरोना काल में पिछले साल लगभग 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए। अर्थव्यवस्था की आज जो स्थिति है, उसके मद्देनजर इस आंकड़े में अभी और बढ़ोतरी होगी। लोगों की नौकरियों का जाना, आय में कमी और काम-धंधे के बंद हो जाने का असर सभी क्षेत्रों और लगभग सभी वर्गों पर पड़ा है।

 इससे लोगों की तकलीफें तो बढ़ी ही हैं, आर्थिक तंगी और असुरक्षा के चलते उनकी खर्च करने की क्षमता कम हुई है, जिसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था की गति धीमी हुई है और इसकी बेहतरी का रास्ता कठिन हो गया है। यह एक ऐसा चक्र है, जो तभी टूटेगा, जब लोगों के हाथों में पैसा आएगा, उनकी खर्च करने की हैसियत बढ़ेगी और आत्मविश्वास बढेगा। अब बाॅत करे देश की अर्थ व्यवस्था पर सीधी नजर रखने वाले आरबीआई कि तो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने वित्त वर्ष 2020-21 में इकोनॉमी पर इसके चैतरफा असर का एक विस्तृत आकलन पेश उसमें कहा गया है कि कोरोना का असर दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत की इकोनॉमी, रोजगार व जीवन-यापन पर गहरा व लंबे समय तक दिखेगा। आरबीआई के शब्दों में कहें तो कोरोना संकट ने कभी न भरने वाली दरार सी पैदा कर दी है। खासतौर पर मार्च-अप्रैल, 2021 में आई दूसरी लहर की वजह से देश की अर्थव्यवस्था के कोरोना से पहले वाली स्थिति में जाना काफी चुनौतीपूर्ण हो गया है। केंद्रीय बैंक का मानना है कि लंबे समय तक निजी उपभोग को बढाकर और निवेश की स्थिति सुधारकर ही आर्थिक विकास दर को तेज किया जा सकेगा।चालू वित्त वर्ष (2021-22) में आर्थिक विकास दर क्या रहेगी, इसको लेकर केंद्रीय बैंक ने बहुत साफ तौर पर अभी कुछ नहीं कहा है। 

बैंक के अनुसार बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कोरोना की दूसरी लहर पर काबू पाने में कितना वक्त लगता है और उसके बाद कोरोना संकट कौन सा मोड़ लेता है। हालांकि, 10 मई के बाद से देश में कोरोना संक्रमण के नए मामले में गिरावट को बैंक ने सकारात्मक माना है। लेकिन केंद्रीय बैंक के रणनीतिकार यह भी मानते हैं कि कोरोना संकट के बारे में बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि सभी देशवासियों को कोरोना रोधी टीका लगाने में कितना वक्त लगता है। बहरहाल पिछले एक वर्ष के बीच जन और धनहानि के बीच देश ने बहुत कुछ खोया है जिसकी भरपाई कभी नही हो सकती, लेकिन तमाम पैकेजों के बीच सरकार को देश की उस अस्सी फीसदी आबादी को लेकर जमीनी स्तर पर रोजगार, सस्ते खाद्यन्न, सस्ते तेल की व्यवस्था बिचैलियाॅ रहित करनी होगी। क्योकि देखा जाए तो यह संवर्ग रोजीरोटी के चक्कर में न आवाज उठा सकता है, न आन्दोलन कर सकता है। न इसकी सत्ता पक्ष सुनता है न विपक्ष इसके पक्ष में कुछ करने आगे आता है। रही सही कसर जातिवाद में जकड़े होने के कारण इनकी स्थिति मूक बनी हुई है लेकिन यह वही संवर्ग है जो देश के लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए मतदान भी करता है और देश के विकास के लिए मजदूर बन जाता है।