बहु समस्या उन्मूलक शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती। अजय शुक्ला ,उप समाचार संपादक ,दैनिक जागरण।




हिन्दुस्तान वार्ता।

यह विरल पल ही होते हैं, जब कोई प्रधानमंत्री किसी सरकारी/ राजनीतिक भाषण के बीच में देश की सबसे निचली किंतु अहम पंक्ति में खड़े अपने देशवासियों को न्योता देने लगे। यह संभव है जब प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद पर बैठा व्यक्ति उसी पंक्ति से उठकर खड़ा हुआ जननायक हो। शनिवार को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में सरयू नहर परियोजना के लोकार्पण कार्यक्रम में जब प्रधानमंत्री ने 16 दिसंबर को होने जा रहे शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती संबंधी एक बड़े कार्यक्रम में शामिल होने का न्योता दिया तो उनके चेहरे और मन के भाव पढऩे वाले थे। वह किसी नवोन्मेषी छात्र की तरह उत्साहित थे। 

गत माह प्रधानमंत्री ने जब तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की थी तो एक और अहम वादे के साथ नई राह पर चलने का एलान भी किया था। तब इस पर किसी ने अधिक ध्यान नहीं दिया किंतु प्रधानमंत्री द्वारा बलरामपुर में दिये गए आमंत्रण से स्पष्ट है कि किसानों की आय दोगुना करने के साथ ही कई अन्य लक्ष्यों के संधान के लिए केंद्र सरकार शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती को बड़े हथियार के रूप में प्रयोग करने जा रही है। काशी में 16 दिसंबर को देश भर से कृषि, कृषि विज्ञान और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञों का बड़ा जमावड़ा होने जा रहा है। यहां से किसानों की खुशहाली का नया रास्ता निकालने पर मंथन और प्रशिक्षण कार्यक्रम होना है। प्रमुख रूप से चर्चा देश भर में शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती पर होनी है।

शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती छोटे किसानों के लिए एक बहु समस्या उन्मूलक तकनीक है। यह तकनीक जटिल नहीं है। साधारण है। आसान है। सभी किसानों की पहुंच में है। विशेष बात है कि यह किसानों की आय दोगुनी करने के लिए कृषि उत्पादों के दाम बढ़ाने के बजाय खेती की लागत शून्य करने वाली है। उत्पादन भी बेहतर मात्रा और गुणवत्ता में होता है। महाराष्ट्र के कृषक, विज्ञानी और संत पद्मश्री सुभाष पालेकर ने इस तकनीक पर काफी काम किया है। उन्हें भारत में इस तकनीक का प्रणेता और प्रशिक्षक माना जाता है। पिछले कई वर्षों से वह यह प्रयोग कर रहे हैं। इस प्रयोग से उन्होंने गोबर, गोमूत्र, गुड़, गन्ने के रस, फलों के सड़े हुए गूदे व पानी के मिश्रण सहित कुछ सहज उपलब्ध अवयवों से जीवामृत जैसे प्राकृतिक रसायन को तैयार करने में सफलता प्राप्त की है। देश के दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में इस तकनीक पर अमल कर खेती के क्षेत्र की क्रांति की एक नई गाथा लिखी है। उत्तर भारतीय राज्यों में भी इस तकनीक पर काम शुरू हुआ है, लेकिन अभी यह प्रारंभिक चरण में है। लोकभारती संगठन की पहल से यहां तीन-चार वर्षों में जो प्रयास हुए हैं उससे हजारों की संख्या में किसानों का प्रशिक्षण हुआ है। स्वयं पालेकर जी इसका प्रशिक्षण दे चुके हैं और बड़ी संख्या में प्रयोग के तौर पर मध्य उत्तर प्रदेश में किसान इस तकनीक पर आधारित खेती कर रहे हैं।

सम्प्रति गुजरात के राज्यपाल आचार्य देववृत ने हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल रहते हुए शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती पर काफी काम किया। सबसे पहले तो उन्होंने राजभवन के उद्यान में ही इसका प्रयोग किया। बाद में अन्य कृषकों को भी इस तकनीक में दक्ष बनाया। किंतु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल में इस तकनीक को राज्य के संरक्षण में फलने फूलने का मौका मिला और परिणाम उत्साहजनक मिले हैं। महाराष्ट्र में पालेकर जी ने अपने स्तर पर प्रयोग किए। कुछ लोगों को जोड़ा, लेकिन कर्नाटक में किसान संगठनों ने उन्हें अपने साथ विशेषज्ञ के तौर पर जोड़कर काम किया। केरल ने उनसे प्रेरणा लेकर करीब 25 हजार हेक्टेयर भूमि पर 'सुभीक्षम सुरक्षितम- भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति से शून्य लागत आधारित परियोजना शुरू की है, जिसे कई चरणों में विस्तार मिल रहा। आंध्र प्रदेश ने इस पर नियोजित ढंग से प्रयास किया। आंध्र सरकार ने पालेकर जी को बतौर सलाहकार जोड़कर पहले इसे पायलट परियोजना के रूप में शुरू किया। मात्रात्मक और गुणात्मक उत्पादन देखकर इसे विस्तार दिया। अब 2024 तक पूरे राज्य की कृषि को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक मुक्त बनाने का संकल्प लिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती के इस माडल की सराहना की है।

सुभाष पालेकर ने शून्य लागत आधारित प्राकृतिक खेती को आध्यात्मिक खेती की भी संज्ञा दी है। कारण, खेती की इस पद्धति में प्राकृतिक परिस्थितियों में खेती की जाती है। बाहर से कुछ खरीदने या खेत में डालने की जरूरत नहीं। जीवामृत के द्वारा केवल फसल चक्र के लिए हितैषी जीवाणुओं के अनुकूल वातावरण तैयार किया जाता है, जो वर्षों से रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से नष्ट होते जा रहे हैं। पालेकर जी का मानना है कि यह जीवाणु ही सूर्य की ऊष्मा व जमीन की नमी से फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्व मृदा से निकालकर पकाकर उन्हें जड़ों और तने तक पहुंचाते हैं। यह खेती थोड़े बदलावों के साथ पूरे देश की जलवायु के लिए लाभकारी है। इसमें गोपालन की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।  

प्रधानमंत्री जी अपने वार्षिक बजट में भी शून्य लागत आधारित खेती को बढ़ावा देने की बात कह चुके हैं। यदि केंद्र के साथ उत्तर भारत की सरकारें भी कृषि की इस विधा को संरक्षण प्रदान करती और नियोजित प्रयास करती हैं तो न केवल किसानों की आय दोगुनी करने में सफलता मिलेगी बल्कि पर्यावरण अनुकूल, कम खर्चीली खेती और गोपालन को लाभकारी बना सकती है। कृषि कानून वापसी के बाद प्रधानमंत्री जिस प्रकार किसानों की आय दोगुनी करने के दूसरे प्रयासों के साथ नई शुरुआत के प्रति उत्साहित हैं, उससे 16 दिसंबर को होने वाला यह आयोजन मील का पत्थर साबित हो सकता।

घटती है लागत तो बढ़ती है :-

प्राकृतिक खेती कई मानवीय-प्राकृतिक व्याधियों का एक साथ निराकरण करती हैं। गत कुछ वर्षों और विशेषकर कोरोना-पश्चात की परिस्थितियों ने यह चुनौती खड़ी की है कि हम प्रकृति के लिए अपनी अराजक गतिविधियों से परेशानी खड़ी करेंगे तो हम स्वयं भी अछूते नहीं रह सकते। इसलिए प्रकृति और मानव के संबंधों को पुर्नपरिभाषित करने के साथ उसी अनुरूप वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है। 

हम वायु और जल प्रदूषण की चर्चा तो करते हैं, लेकिन धरती के बाह्य आवरण के विषैले होने की उतनी चर्चा नहीं होती। हरित क्रांति के दौरान कृषि यंत्रों और रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन इसने धरती की कृषि योग्य उपजाऊ परत को विषैला कर दिया। इस विष ने न केवल खेतों से मित्र कीटों और जीवाणुओं को नष्ट किया बल्कि वर्षा ऋतु में यह विष बारिश के पानी के साथ बहकर बरसाती नालों और सहायक नदियों को दूषित करता है, जहां से यह गंगा-यमुना जैसी बड़ी नदियों को प्रदूषित करता है। यानी यह जल प्रदूषण या नदी प्रदूषण का बड़ा कारण बनता है। कृषि यंत्रों के प्रयोग से गोवंश की उपयोगिता पर चोट पहुंची है। लोग केवल गाय के दूध भर के लिए गोपालन करने लगे जबकि उसकी अन्य उपयोगिताओं का दोहन नहीं हो सका या जो होता था उस पर विराम लग गया। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उत्पादित वस्तुएं भी विषैली होने से अछूती नहीं रहीं। बीज, खाद, पानी की लागत बढऩे और बाजार की उपेक्षा से किसान ऋण के जाल में फंसकर आत्महत्या तक कर रहे हैं। शून्य लागत प्राकृतिक खेती इन कई सारी समस्याओं के समाधान की ओर ले जाती है। इस पद्धति से खेती में प्रयोग होने वाली सभी आवश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति करती है और बाजार से एक भी चीज नहीं खरीदनी पड़ती। यहां तक कि बीज भी। 

प्राकृतिक खेती की अवधारणा इस मान्यता और प्रयोग पर आधारित है कि फसल के लिए कार्बन डाई आक्साइड, नाइट्रोजन, पानी और सौर ऊर्जा की आवश्यकता होती है और यह सब प्रकृति के भंडार से सहज उपलब्ध हैं। आवश्यकता केवल खेत में उस वातावरण के निर्माण की है जिससे इन चारों प्राकृतिक अवयवों का संयोजन किया जा सके। सुभाष पालेकर जी ने इसके लिए मूलत: देसी गाय के गोमूत्र, देसी गाय के ही ताजा गोबर, गुड़, गन्ने के रस या गूदेदार फलों के प्रयोग द्वारा वैज्ञानिक पद्धति से तैयार घोल का फार्मूला तैयार किया। इसे जीवामृत नाम दिया गया है। इसी तरह घन जीवामृत, बीजामृत का फार्मूला तैयार किया गया है। अलग-अलग पारिस्थिकी के अनुकूल फसलों के लिए कुछ इसी प्रकार के सहायक फार्मूले हैं। खेती ही नहीं बागवानी में भी यह सहायक है।

शुरुआत में यह आशंका व्यक्त की गई थी कि प्राकृतिक खेती से उत्पादन कम मिलता है। यह कुछ हद तक सही है, लेकिन पूर्ण रूप से नहीं। यदि संपूर्ण कृषि अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को ध्यान में रखकर देखें तो यह रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से होने वाले उत्पादन की अपेक्षा कुछ कम अवश्य हो सकती है, किंतु उत्पादकता और गुणवत्ता अधिक है।

उदाहरण के लिए सीतापुर की बिसवां तहसील के किसान अशोक गुप्ता बताते हैं कि पिछले पांच वर्षों से आठ एकड़ भूमि पर प्राकृतिक खेती कर अश्वगंधा, शतावर, कैमोगिल (ग्रीन टी) जैसे औषधीय पौधों के अलावा प्याज, लहसुन, चना, धनिया उगाते हैं। इस पद्धति से उगाई फसल के रसायनमुक्त, स्वाद और स्वास्थ्यवर्धक होने के कारण दोगुने से तिगुने तक दाम मिलते हैं, जबकि लागत के नाम पर केवल श्रम और कुछ भी नहीं। लखनऊ में सीमैप में औषधीय फसलें हाथोहाथ बिक जाती हैं। इस पद्धति में पानी भी साधारण की अपेक्षा 10 प्रतिशत मिलता है। जीवामृत के प्रयोग से धीरे-धीरे खेत में मित्र कीटों और जीवाणुओं की मात्रा बढ़ती है जो मृदा में शिराओं का निर्माण करते हैं जिससे वर्षाजल शोषित होकर भूमि में पहुंचता और इसकी नमी से फसल को जीवन मिलता है।

उत्तर प्रदेश में शून्य लागत प्राकृतिक खेती के प्रचार-प्रसार और प्रशिक्षण के क्षेत्र में कार्यरत संगठन लोकभारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बृजेंद्र पाल सिंह बताते हैं कि उन्होंने पांच-छह वर्षों से प्राकृतिक खेती पर काम करना शुरू किया। दिसंबर 2017 में पद्मश्री सुभाष पालेकर जी के सान्निध्य में मास्टर ट्रेनरों का प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया था। तब से अब तक प्रदेश में हजारों किसानों का प्रशिक्षण हो चुका है और उनकी प्रेरणा से लाखों किसान प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी है। 16 दिसंबर को वाराणसी में शून्य लागत आधारित खेती पर चर्चा की प्रधानमंत्री की घोषणा से इन किसानों की आशाओं-आकांक्षाओं को नई उमंग मिली है। इससे किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य भी पूरा होगा।