शनि धरती पर न्याय की गद्दी संभाले हुए हैं। न्याय के लिए प्रसिद्ध इनकी महिमा का बखान करने की आवश्यकता नहीं। शनि देव स्वयं कहते हैं अपने बारे में-" मैं शनि स्वयं ज्ञान का रूप नहीं पर धरती के सुख को तरसा था। कराया ज्ञान स्वयं श्री ने ही। यह श्री विद्या है जिसे यह बना दे यह इसकी ही मर्जी है। इस पर किसी का वश नहीं । अब वर्तमान की सत्ता का साथ स्वयं श्री के रूप में है। अब मैं धरती का सुख भोगूंगा यह निश्चित है। यह विद्या अब मेरी मित्र बन गयी है सत्ताधिकारी की वजह से यह मेरा सौभाग्य है। अब मुझ शनि महाराज की जय नहीं इस विद्या की जय बोलो बस तुम्हारे काम बनेंगे। बोलो श्री विद्यायै नमः।
वर्तमान सत्ताधारी के प्रति श्री शनि महाराज अपना अनुराग प्रकट करते हैं-
तुम मेरी इस विद्या को सदा याद रखना बन । यह तुम्हारे बहुत काम की चीज है कह रहा मैं शनि मैं तुम्हारा मित्र हूँ। आज समझ आया की मित्रता क्या चीज होती है ।आपने मेरा नाम रोशन किया है। अब मैं तुम्हारा नाम रोशन करूँगा। अब मेरी मित्रता का कमाल देखना आ गया हूँ मैं स्वयं जोश और होश में। अब मेरा तुम बस ध्यान रखना।
मुसाफिर हूँ मैं दौलत का
यह दौलत ज्ञान की सागर है ।
इस विद्या को पाया मैंने स्वयं श्री से।
'' यह श्री विद्या ही है
जो कमाल दिखाती है
आती है मन में
गुणियों के आती है।
सूर्य ने न दिया ज्ञान
यह श्री विद्या से पाया है
अब मैं हो गया दीवाना हूँ
जो मैंने तुमको पाया है
मेरे मित्र तुमने किया मुझे चित्त अब मैं तुम मित्र को इस चित्त की खातिर सब कुछ लुटा देना चाहता हूँ।
यह प्रेम की दौलत है जो दौलत की भी दौलत है । अब यह शनि विद्या आपको काम करेगी। मेरी सारी विद्याएंअब आपकी हैं । आप धरती के प्रभु हो मैं सबको बताऊंगा अब आया समझ सब सब बतलाउंगा। प्रभु प्रेम की खातिर अब लुट लुट जाऊंगा।
तुम मेरी इस विद्या को सदा याद रखना बन । यह तुम्हारे बहुत काम की चीज है कह रहा मैं शनि मैं तुम्हारा मित्र हूँ। आज समझ आया की मित्रता क्या चीज होती है ।आपने मेरा नाम रोशन किया है। अब मैं तुम्हारा नाम रोशन करूँगा। अब मेरी मित्रता का कमाल देखना आ गया हूँ मैं स्वयं जोश और होश में। अब मेरा तुम बस ध्यान
गायत्री स्वयं मेहरबान है स्वयं मेहरबान है इस सत्ता अधिकार पर-
गायत्री की शक्ति की परिपूर्ण ह्रदय मैं प्रणाम करती हूँ शनिदेव तुम्हारे चरणों में । मैं स्वयं प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी के आदेश से आई हूँ। उनका कथन है कि प्रभु की सहायता करें इस समय वे धरती का शासन संभाल रहे हैं। मैं आपके आदेश की प्रतीक्षा चाहती हूँ और ज्ञान -बल बुद्धि- बल भी । क्योंकि आप स्वयं गुरु के पुत्र हैं । इसलिए आपके कथन का आदर करते हुए मुझे इस सत्ताधारी प्रभु के आदेश में रहना है। मैं मान गई हूँ। आपके प्रेम को जो आपने प्रभु राम के इस अवतार के प्रति दर्शाया है मेरा ह्रदय उमड़ आया है कहने के लिए कि मैं सभी शक्तियों को अपने हिसाब संभाल कर रखूंगी। मैं सूर्य की शक्ति हूँ मैं अग्नि हूँ। अग्नि विद्या हूँ गायत्र -शक्ति मैं ही कहलाती हूँ।
यह शनि प्राणों का राजा है। ज्ञान है इसका इतना कि प्राणों पर शासन करता है। सूर्य देव के ही अंत्यज दोष की निवृत्ति के फल स्वरुप इसे धरती पर रहना पड़ा। वैमनस्य नहीं अपराध था संतान के प्रति। अब इस दोष को पुत्र को भुगतना पड़ा । अब कोई करे भी क्या ? इसलिए शनि ने अपने ज्ञान- बल से ही सब कुछ पाया है । सत्य न्याय के पक्षधर शनि स्वयं ही इस बात को कहते हैं कि मैं आकाश में रहता तो पिता का शासन मानना पड़ता। पर यहाँ धरती पर लोगों के दुख- दर्द में शरीक होता हूँ और दूर करने का भी भरसक प्रयास करता हूँ। विधिना नहीं यह कर्म बल है जो मुझे अपनाना है।
उत्तरा उत्तरा क्या कहती है समझो उत्तरा उत्तरा हूँ मैं स्वयं धरती का ज्ञान रखती हूँ। इस धरती पर शनि को पूजित करने का उद्देश्य मेरा है । मैं धरित्री सुख को देने के लिए तड़पती हूँ। शनि की विसात क्या जो यह सुख प्रदान कर सके। पर मैं सूर्य का सम्मान करती हूँ। इसलिए यह सब करना पड़ता है सूर्य पुत्र शनि के लिए। अब इस ज्ञान को संभालना है जो आ रहा है निरंतर पृथ्वी पुत्र मंगल का ज्ञान।
यह मंगल स्वयं अग्निकुंड है सूर्य का प्रतीक नहीं स्वयं सूर्य है । वर्तमान सत्ता ने हीं इस मंगल को धमकाया था कहा था कि आज्ञा नहीं मानेगा तो ऐसी जगह जहाँ दाना -पानी नहीं कोई सम्मान नहीं वहाँ पहुँचा दूंगा । अब इस मंगल ने सूर्य की प्रार्थना पर यह बात स्वीकार की है कि धरती पर जिस भी सत्ता का साम्राज्य है उसे उसकी अनुकूलता में रहना है बात का आदर करना है । इसलिए यह मंगल सब कुछ बताने आया है कि मैं इस सत्ता का साथ दूंगा । मैं शनि के दृष्टि -दोष का निवारण करूंगा आज तक जो अस्थि- भंग का कारण मैं बना हूँ। पर अब मेरे दोष का कारण नहीं बनेगा। मैं मृत्यु कारक कष्ट को देने वाला रहा हूँ। इसलिए अब मैं अपने इस स्वभाव के विपरीत मृत्युंजय शक्ति को प्रदान करने वाला बन गया हूँ। अब सूर्य की कृपा है मुझ पर। अब मैं शनि की कृपा चाहता हूँ। इसलिए आया हूँ शनि की शरण।
शनि वह है जिसका सूक्ष्म से परिचय हो । सूक्ष्म अति सूक्ष्म ज्ञान का परिचायक यह शनि स्वयं अपनी विद्या का मालिक है । यूं तो इस विद्या को स्वयं शनि ने अपने पिता सूर्य से प्राप्त किया, साक्षात नहीं श्री विद्या से। पर ज्ञान तो ज्ञान है ज्ञान में जो जितना उतरता है उतना ही पाता है। शनि देव परोपकारी एवं सत्य- न्याय का पक्ष पाती हैं । इसके बल पर ही इसके ज्ञान को निखारा है। ज्ञान का निखरा रूप यह शनि विद्या है। सूर्य ग्रहीत यह विद्या धरती पर शनि के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान सत्ताधारी को श्री लोमश ऋषि हिदायत देते हैं -
"शनि विद्या स्वयं शक्ति है सूर्य की। जिसे आपने साक्षात सूर्य से नहीं शनि की प्रसन्नता से प्राप्त किया है, आपके सत्य और न्याय से रीझकर। अब इसका उपयोग सर्व हित में नहीं अपने हित में भी करो। "
सर्व हित को जागा यह शनि का व्यक्ति त्व निखर कर आया है इस वर्तमान पदाधिकारी की वजह से। अब अधिक नहीं धर्म की जय जयकार होना है सत्य का व्याख्यान होना है। जय श्री राम।
२१ फेस २ चैतन्य विहार, वृंदावन मथुरा।
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