गीता ज्ञान " महायोग का प्रताप " मोक्षदा एकादशी (गीता जयंती पर विशेष)डॉ. विनोद शर्मा, ज्योतिष एवं पराविद




यह लेख परावाणी का रूप है साक्षात ईश्वर की वाणी ईश्वर-प्रज्ञा के रूप में यह वाणी अनेक रूप धरती है । यह अभेद स्थिति है ज्ञान की धरती पर उतरती है कल्याण करती है। 

                               -  संपादक 


  गीता ज्ञान रूपा है ईश्वर वाणी है। सूर्य ज्ञान स्वयं वाणी में उतर आया है 'श्री कृष्ण' के । अनुभव रूप ज्ञान का प्रतिदर्श यह स्वयं है । इस ज्ञान को  किताबों में ढूंढना व्यर्थ है । वहाँ संदर्भ नहीं संदर्भ तो वह खुद है जो ईश्वर वाक्य हैं। गीता संदर्भ ग्रंथ है। संदर्भ ग्रंथों का प्रादुर्भाव ईश्वर-प्रेरणा से होता है। सूर्य विद्या जिसे 'श्री विद्या' भी कहा जाता है का ज्ञान यह गीता है  आत्म-विद्या है यह । यह गीता स्वयं श्री है। यह श्री स्वयं कहती है-


"मैं स्वयं श्रीविद्या योग के खजाने को अपने अंदर समाहित किये हुए योगमाया, महामाया आदि शब्दों से अभिहित ज्ञान राशि के रूप में अपने अनेक स्वरूपों में वेदों में व्याख्यायित ज्ञान की प्रतिपादिका शक्ति के रूप में गीता ज्ञान के रूप में प्रकट हुई   हूँ। मेरा कोई एक स्वरूप नहीं , मैं अनेक रूपों में जहाँ जैसी आवश्यकता हुई प्रकट होती रही हूँ। ज्ञान की कुंजी किसी एक के हाथ में तो रहती नहीं पर यह ज्ञान संजोकर जिस पदार्थ के रूप में एकत्रित है वह परमेश्वर की शक्ति 'महामाया' में ही हूँ। 'स्वप्नेश्वरी', 'ज्ञानेश्वरी', 'महा योगेश्वरी' के रूप में मुझे ही परमात्मा के द्वारा स्मरण किया जाता है । ज्ञान की अवतरित शक्ति के रूप में ही मेरा प्रादुर्भाव ग्रंथ के रूप में होता है।"

 गीता कोई ग्रंथ नहीं, यह वाणी है ईश्वर की  । कृष्ण के रूप में अवतरित विष्णु का  षष्ठयांश  ही इस गीता का वाचक है। वाणी से गीति अर्थ में गीता यानि जिसे वाणी से गाया जाय मधुर स्वर में  लयबद्ध होकर गाया जाय वह है गीता। 

 परमात्मा की शक्ति के रूप में अवतरित सूर्यात्मक ज्ञान ही गीता है। साक्षात सूर्य वाणी में उतर आया है , यह 'महायोग ' की शिक्षा है । 

गीता कर्म की उपदेशक बनकर रह गई हो ऐसा नहीं लगता पर ज्ञान के अर्थ में कर्म पीछे रह जाता है । कर्म और ज्ञान एक दूसरे के पूरक होते हैं यह बात तो योग से समझ में आती है । "तम : यत्र सर्वम  विलीयते। " -    'तम ' वह है जहाँ  सब कुछ विलीन हो जाता है। पर ' तम 'अंधकार या :अज्ञान 'के प्रत्यय के रूप में ही अपना अर्थ खो देता है तो वहाँ विद्वानों की बुद्धि पर समझो कि ताला लग गया हो । तम  वह जो उजाले की सोचता है। ज्ञान की समस्त राशि  जहाँ एकत्रित हो गयी हो वह परम पुरुषार्थ की जननी 'महाकाली ' का ही महाज्ञान है । काली ज्ञान की पहेली है। ज्ञान का महान स्तंभ भी है । पर इस महा स्तंभ को कोई हला नहीं सका प्रकृति में नहीं लगता । ज्ञान के सारे कुंजी- ताले सब सब सरस्वती बताती है, वह महाकाली है । महाकाली की प्रज्ञा सूक्ष्म नहीं अति सूक्ष्म की प्रकाशिका शक्ति है जो महाप्रलय की देवी आकंठ ज्ञान की धात्री है। महाप्रलय अखंड अंधकार ही है क्रिया योग के बाद में महायोग प्रवर्तित होता है । प्रलय की समाख्याता यह महाशक्ति ही बाद में पूजित होने के लिए 'महामाया ' के रूप में प्रकट होती है  सृजन करने के लिये। 

 

   सृष्टि का आदिभूत तत्त्व ही ' तम' है।  इस तम को जाने बिना हम ज्ञान के परिक्षेत्र में अपना कदम नहीं रख  सकते। ज्ञान ज्ञान होता है ज्ञान कोई खेलने का बच्चों का खिलौना  नहीं, जिसे जितना समझा ठीक ,नहीं तो बाद में उसे पटक कर तोड़ दिया। ज्ञान तो उत्सर्जन है क्रिया है यह। ज्ञान का क्रिया रूप में उत्पन्न विज्ञान है । इस ज्ञान की शक्ति ही प्रकाशिका नाम से कथित है। ज्ञान का प्रकाशन धर्म है । अंधकार तत्त्व  निगीर्णन नहीं प्रकाशन है  महाकाली की प्रज्ञा । इस प्रज्ञा के बल पर महायोग की स्थिति उत्पन्न होती है । 


महायोग में स्थित इस प्रज्ञा के बल पर ही लाखों जन्मों की दबी संस्कार की भूमि को भी उधेड़ उसमें से अपने मतलब की चीज निकाल ली जाती है। यह महाकाली की प्रज्ञा अत्यंत तीक्ष्ण है। जन्म -जन्मांतर के संबंध की  द्योतक  है। महायोग कर्म की भूमि पर ही उपजता है। ज्ञान जब क्रिया में  प्रवर्तित होता है  तभी इस महाप्रज्ञा का उदय होता है। 


"योग : कर्मसु कौशलम" कहें  या योग की प्रशंसात्मक उक्ति या कथनों का अंबार लगा दें पर योग को प्राप्त करना कोई आसान काम नहीं है। योगलब्धि तो: प्रज्ञा चक्षु ' हैं जिसे प्राप्त कर व्यक्ति अमर हो जाता है। भूत, भविष्य ,वर्तमान ,सर्वकालिक इस प्रज्ञा को प्राप्त करने से  त्रिकालिक   सर्वकालिक बोधव्य इस ज्ञान को लेकर। पर यह ईश्वर ज्ञान की समकक्ष प्रज्ञा ही है ।   बोध और  बोधपरा इससे आगे की प्रज्ञा है जिसमें वस्तु विशेष का ज्ञान नहीं यह सर्वकालिक ज्ञान से भिन्न ज्ञान की शक्ति है ,जो इससे भी परे है ।काल का यहाँ भेद नहीं है । काल तो संसार तक है इसके ऊपर की स्थिति शब्द साम्राज्य ,भाव साम्राज्य और इससे भी परे मात्र  अवबोध  ही शेष रहता है वह स्थिति है । 


ज्ञान का प्रकटीकरण  क्रिया योग की स्थिति नहीं, पर ज्ञान जब स्वयं प्रकट होना चाह रहा हो तो वह क्रियायोग ही वास्तव में महायोग की संज्ञा पाता है । ज्ञान  की एकत्रता का साम्राज्य भक्ति में नहीं, अपितु शक्ति में ही समाहित है । ज्ञान जब शक्ति के रूप में केंद्रित होता है या कहना चाहिए कि शक्ति बन निकलता है तो उसे हम महायोग की उपाधि देते हैं। महायोग और कोई नहीं, प्राणों का  संयमन है । ज्ञान की एकाग्रता या एकत्रीकरण सब सब और सब प्राणों में ही निहित है। प्राण संयमित होते हैं तो ज्ञान का निखार होता है। इस ज्ञान के निखार को ही  सहयोग या संयोग का स्वरूप कहा गया है। 


ज्ञान कभी नहीं कहता कि तुम मुझसे मिलो ,ज्ञान तो स्वयं मिलता है। फूल में सुगंध वैसे ही नहीं आती। 


  बस समझो जब फूल खिलता है सूर्य की किरणें उस पर पड़ती हैं। वास्तव में सूर्य की किरणों का अविकसित पुष्प को विकसित करने का यह उपक्रम या क्रियारूप प्राणों का पुष्प में संयमन ही है। पुष्प किरणों से कभी नहीं कहता कि तुम मुझसे मिलो यह तो प्रकृति का उस महामाया के आदेश से सूर्य किरण के रूप में संयोग का एक अवसर है। बस समझो कि फूल खिलता है तो प्रकृति का वातावरण सुरभित होता है इसे ही विकास कहा गया है। विकास के अर्थ में समाहित ज्ञान का उद्देश्य ही "योग: कर्मसु कौशलम् " की व्याख्या करता नजर आता है । नजरिया है ज्ञान का जो बाहर की ओर फूटता है ।


शिष्य ज्ञान रूप गुरु के मंत्र को अपने अंदर विकसित कर जब वातावरण में अपनी छवि को व्यक्तित्व के रूप में प्रकट करता है तो वह बीज रूप में छिपा ज्ञान बाहर आकर अपना असर दिखा रहा होता है तो बस यही " योग :कर्मसु कौशलम् " का ही संदेश दे रहा प्रतीत होता है । ज्ञान कोई भी हो उसका एक ही अर्थ है विकास। विकास सृजन का ही रूप है यानि जब विकास होता है तो सृजन कहलाता है । सृजनात्मक बुद्धि का मतलब है कि हम अच्छे व्यक्तित्व के धनी है। 


"खिला दो पुष्प को 

अपने अंदर 

ज्ञान का उजाला है, 

अंधेरा नहीं रहता

 जब होता उजाला है। 

 

कवियों ने कहा

  गुणियों ने सुना

 कि मत पूछो 

पहुना कब और

 किस वक्त आता है , 

यह पाहुना है ज्ञान का

जो  वेवक्त आता है। 

 


आता है तो 

उजाला होता है दिल में, 

 अब इस दिल से न पूछो

 कि उजाला क्या चीज है लेकिन। 

यह तो दिल ही जानता है 

दिल की बेबाक  फिरस्ती में

  न ढूंढो प्यार का आलम , 

यह तो फितरत है ज्ञान की 

जो मुंह मांगे न मिलती है । "

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मोक्षदा एकादशी

 

डॉ विनोद शर्मा

 

ज्योतिष एवं पराविद 


एकादशियों में उत्तम व्रत इस 'मोक्षदा एकादशी ' का है । यूं तो सभी एकादशियाँ भगवान विष्णु से संबंध रखती हैं । पर यह मोक्षदा एकादशी स्वयं विष्णु के उस रूप से  जो मोक्ष देने वाला है  संबद्ध है ।


 मोक्ष होता है प्राणों का यानि मन का । मन से अधिक सूक्ष्म प्राण हैं।पर मन ही प्राण रूप में जब परिवर्तित हो जाता है तो मन को ही प्राण कहने लगते हैं। सब कुछ प्राण ही प्राण हैं मन की कोई अवस्था नहीं।  मन तो तब तक है जब तक वह इन इंद्रियों के चक्कर में फंसा है । पर जब मन ईश्वर समर्पित होकर वासना से परे हो जाता है, तब मन प्राण एक हो जाते हैं। न रहता भेद कुछ मन और प्राण में । तब ईश्वरत्व का अभिमान नहीं सब कुछ ईश्वर के ही अधीन भेद नहीं कुछ अभेद में व्याप्त ईश्वर प्रज्ञा से जुड़कर काम करता है । भक्त की यह स्थिति जो भगवान से जोड़े रखती है इसी स्थिति को' जीवन मुक्त' की अवस्था कहा है । मोक्ष तो न प्राणों का होता है न मन का। मन भी प्राण है न भेद है कुछ मन और प्राण में । इस अभेद अवस्था को प्राप्त स्थिति को ही जीवनमुक्त से भी अलग अभेदरूप कहा जाता है । 


ज्ञान की संज्ञा नहीं कुछ ज्ञान तो ईश्वर रूप है। इस ज्ञान से जुड़े रहकर ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है । मोक्षदा शब्द का अर्थ है - मोक्ष देने वाली। एकादश मन, प्राण रूप में इंद्रियां ही एक के साथ समाविष्ट जब होती हैं तो वे मोक्ष का अनुभव करती हैं। मोक्ष कुछ नहीं प्राणों का समागम है, स्थिति है ज्ञान की जो ईश्वर से बांधे रखती है । 


ज्ञानी को मोक्ष क्या ? वह तो मोक्ष रूप ही है । पर इस स्थिति को पाना कठिन है । तप के बल पर ही किसी को प्राप्त होती है।  अच्छे-अच्छे मोक्ष प्राप्त न कर पाए स्वयं शिव भी नहीं। शिव तो अपने लोक में निवास करते हैं जिसे 'शिव लोक 'कहा जाता है । शिव से ऊपर "सदाशिव'" और "परमशिव "अवस्था है ।  परमशिव परमेश्वर के नजदीक स्वयं विष्णु की अवस्था है। विष्णु को बैकुंठ का मालिक कहा गया है ।


 ज्ञान की जितनी भी अवस्थाएं हैं उनमें सबसे श्रेष्ठ विष्णु हैं।अवस्थाओं का अंत नहीं पर विष्णु सबसे ऊपर हैं। इस विष्णु  के ज्ञान को प्राप्त करना ही मोक्ष की स्थिति कहलाता है। पाने का मतलब ज्ञान से है । विष्णु का ज्ञान ही मोक्ष है । 

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