प्रकृति का सब कुछ है अध्यात्म।डॉ विनोद शर्मा ,ज्योतिष एवं पराविद।


हिन्दुस्तान वार्ता।

ज्ञान पर आरूढ़ का मतलब ही है संक्रांत  होना।" संक्रांत" शब्द का अर्थ ज्ञान यानि  "वृहस्पति" को भी लांघकर स्वयं उससे भी बड़ा ज्ञान जो सूर्य है मकर राशि के साथ  रहने को अपनी कलाओं का विकास करने के लिए प्रवेश करता है । यह ज्ञान के प्रवेशन का काल है । संक्रांत होना  अर्थ में विभिन्न अर्थों में निहित ज्ञान को कला के रूप में विकसित होने का यह समय है। सूर्य" धनु राशि " से "मकर राशि " में प्रवेश करते हैं । धनु पहले हैं और मकर बाद में। धनु से मकर में जाना इस बात का द्योतक है कि  ज्ञान ज्ञान  के ऊपर चढ़ रहा है । पर ज्ञान पर आरूढ़ का अर्थ स्वयं बृहस्पति को भी अतिक्रमण करके मकर में प्रवेश करना । असल में ज्ञान ज्ञान ही होता है। सीता ने राम को धनुष का ज्ञान दिया।

 "पर स्वयंवर न होता धनुष का

 धनुष तो एक बहाना था। 

राम को सीता के लिए आना था। "

धनुष यज्ञ राम के लिए था। पर क्या, जितनी भी सीता की बहनें  थी  क्या वे   खाली हाथ रह गयीं ,उन्होंने भी अपने -अपने अनुकूल वर  को प्राप्त किया। ज्ञान पर आरूढ़ का मतलब जो धनुष ज्ञान रूप है उस ज्ञान रूप धनुष पर प्रत्यंचा को चढ़ाना , बस यही है संक्रांत करना। हर काल में हर स्थिति में संक्रांत करना ही पड़ता है और संक्रांत का अर्थ है -अतिक्रमण। जब भी हम किसी का अतिक्रमण करते हैं तो हमें झुकना पड़ता है। जैसे किसी के ऊपर से गुजरकर हमें दूसरे व्यक्ति को  या वस्तु को प्राप्त करना है तो उस व्यक्ति , वस्तु या पदार्थ को हमें स्पर्श करना होगा। स्पर्श करना है बस। 

यही ज्ञान था राम को ,जो रावण नहीं कर पाया । रावण यही गलती कर बैठा । उसने न धनुष का  ज्ञान प्राप्त किया था और न वह धनुष के लिए झुका।

 सीता शक्ति है ज्ञान की, उसको प्राप्त करने के पहले झुकना जरूरी है। राम ने झुककर उस धनुष को प्रणाम किया और वह स्वयं हल्का हो गया । बस यही कहानी है ज्ञान की। इसी को समझना और पाना है। 

जिसे तुम चाहते हो वह तुम्हारे सामने है बस पाने  का ढंग ही आना  चाहिए गाना। विनम्रता  ही ज्ञान की पहुंच  है, इस  विनम्रता को ही समझना है। 

"सुख रूप श्री राम 

और सुख निधान श्री श्री स्वयं । 

आ गयीं अब जानकी

 रहने को अब स्वयं स्वयं । 

सीता ने बुलाया है 

इसलिए यह दिन आया है। 

बस इस सार को ही समझना है 

इस काल को ही झुकना है। 

स्वयंवर न हुआ था धनुष का

स्वयंवर  तो  हो जाना स्वयं । 

सीता के स्वयंवर में 

राम ही आते  स्वयं ।" 

इसलिए पहले राम बनो ,राम के गुणों को धारण करो बस । यह श्रीविद्या यह सीता तुम्हें वरण करने के लिए खड़ी है। प्रकृति रक्षा चाहती है रक्षक बनो इस प्रकृति के । इसलिए सत्य  कथन है कि 

अक्षुष्ण रहने लिए अध्यात्म से संबंध स्थापित करें। अध्यात्म सबका है  और सब के लिए है। उत्तरा के गर्भ से क्या हुआ ? यह प्रश्न नहीं है। प्रश्न इस बात का है कि हमें इस उत्तरा को पाना है। यह उत्तरा आखिर क्या है ? इसकी खोज में निकलना है। 

ज्ञानगंज एक जगह है अध्यात्म पुरुषों की । जहाँ रहकर वे अध्यात्म संपदा को संभाले हुए हैं। 

अध्यात्म की संपदा किसी एक के हाथ में नहीं,यह ज्ञान की ऊंचाई है। जहाँ से उठना तो क्या, संभलना भी भी मुश्किल है । इसलिए अध्यात्म को पाना है तो खोजना आना चाहिए। जब तक आप खोजी  नहीं, तो अध्यात्म को कैसे संभाल पाएंगे? 

आत्म रूप  निरीक्षण में जाने का समय है। प्रश्नों का उत्तर तो आत्मा में है बस। जब तक आत्मानवेषण नहीं, तब तक सब व्यर्थ है। अध्यात्म के केंद्र बने ये स्थान अदृश्य में स्थित हैं

। न खोज पाया कोई इन्हें कि  ये स्थान कहाँ हैं। प्रकृति बचाकर रखती है अपने को किसी न किसी अंश के रूप में बस यह वही स्थान हैं जहाँ प्रकृति की सुरक्षा के लिए कदम तो क्या प्रकृति क्या सब कुछ इन केंद्रों में हो जाना है। ज्ञान का केंद्र बने यह स्थान स्पेस में हैं। संसार भर की सारी प्रतिभाएं इन केंद्रों में अपना काम कर रही हैं। मैं भी विचार करता कि अध्यात्म कैसे संभलता है  ? तो  उत्तर न पाता । ज्ञान ज्ञानगंज अध्यात्म की ही नहीं , यहाँ  पुण्यवानों  को  कुछ करने की जगह है। प्रकृति अपने आयाम तलाश रही है । ज्ञान कोई एक जगह तो नहीं, यह धरती का ज्ञान जगह- जगह पल्लवित हुआ, झोपड़ी से लेकर आलीशान महलों तक इसने अपना आसन जमाया। आधार- शक्ति को पाना बहुत मुश्किल काम है । सरस्वती कहती है कि मैं आधार हूंँ ज्ञान की । पर धरती पर मैं आधार किसी वस्तु या व्यक्ति को ही चुनती हूँ। मैं अशरीरी हूंँ मैं दिव्य हूंँ, मुझे पाने का मतलब है, मुझे स्वीकारना। 

ज्ञान की शक्ति  मैं स्वयं ईश्वर के साथ जुड़कर काम करती हूंँ। ज्ञान न एक किसी का है ज्ञान तो सबका है। 

परमात्मा जिसे परार्थ या परमार्थ कहते हैं । परमार्थ से जुड़ी यह शक्ति बस बस कुछ एक को ही अपना आधार बनाती है । धरती पर जितने भी आध्यात्मिक पुरुष हुए हैं उनमें चाहे विवेकानंद हो या सुमुख प्रभु प्रभु पद आचार्य सब सब उस ईश्वर के ही प्रतिरूप हैं । महात्मा बुद्ध ने कहा नहीं किया। बस यह समझो कि जो क्रिया का रूप है वह ज्ञान ही किसी न किसी एक को अपना विषय बनाता है ,आधार बनाता है। सबसे पहले आधार को ही पूजना होता है । मैं आधार शक्ति हूंँ जगत की। पर आधार नहीं ,तो कुछ भी नहीं । इसलिए आधार को समझो । आधार गड़बड़ाया  तो सब कुछ गड़बड़ हो गया । बस यह आधार ही गड़बड़ाया है और कुछ नहीं।

 हमारे अध्यात्मिक पुरुष कहा करते थे कि इस धरती की संपदा धन नहीं, सुख है और सुख  दैवी संपदा है ।  दैवी संपदा का अर्थ है जो ईश्वर प्रदत्त है, जिसे हम गॉड गिफ्ट कहते हैं । 

समझो यही संपदा है ईश्वर की जिसे कोई छीन नहीं सकता। "विद्या ददाति विनयम"- विद्या विनय देती है। विनय का अर्थ है- विनम्रता । "विनयात   आयाति पात्रताम्।" विनम्रता से ही योग्यता आती है पात्रता को ही योग्यता कहा है पात्रता नहीं तो कुछ नहीं। पात्रता का मतलब है  क्षमता। काम करने की शक्ति का विकास ही क्षमता है। हम किसी कार्य को करते हैं तो उस कार्य को करने की विधि होनी चाहिए। विधि बिना सब कुछ व्यर्थ है। हमें विधि में जाना ही होता है । हर वस्तु का कार्य का एक करने का ढंग है और जब तक हमें यह प्राप्त नहीं तब तक उस कार्य को सफलता के साथ नहीं संपादित कर सकते। बस इसका नाम ही योग्यता है।

 संसार में कोई वस्तु ऐसी नहीं, कोई मनुष्य ऐसा नहीं जिसमें कोई योग्यता न छिपी हो। हर व्यक्ति हर वस्तु कोई न कोई योग्यता रखती है। बस ऐसी योग्यता को पहचानने की जरूरत है  इसी को ईश्वर का विवेक कहते हैं । हजारों में से एक को छांटना यह ईश्वर की देन है। मत पूछो कब किसे क्या मिल जाए ? यह ईश्वर का ही सब खजाना है पाना है तो बस उससे ही पाना है । इसे ही सदविवेक कहते हैं। दुनियाँ की यूनिवर्सिटी हैं पर अध्यात्मिक की कोई यूनिवर्सिटी नहीं। असल में आत्मा का कोई एक स्थान तो नहीं जहां बैठकर इस ज्ञान को दिया जाए। आत्मा तो अपने में सूक्ष्म ज्ञान को संभालकर रखने की जगह है। बस यह आत्म केंद्र ही हैं जहां

  अध्यात्म पलता है,पर जब अध्यात्म पलकर बड़ा हो जाता है कुछ करने वाला हो जाता है तो समझो उसे "ज्ञानगंज" जैसी जगह रहने को मिलती है ,काम करने को मिलती है । शोध केंद्र है यह अध्यात्म के । धरती पर बहुत जगह हैं, जहां अध्यात्म पलता है बड़ा होता है और धरती की रक्षा करता है। 

धनुष्कोटि एक जगह है । भगवान श्रीराम ने यहीँ खड़े होकर धनुष  ताना था उस अविवेक को जगाने के लिए  पर अविवेक  जगा तो दंड से ही। उसने स्वयं आकर प्रकट होकर अपने हाथ जोड़े और स्वीकारा कि मैं धर्म के आड़े नहीं आऊंगा । मैं स्वयं उस "श्रीविद्या" को जो सीता रूप में है   को लाने में अपनी शक्ति से सहायक बनूंगा। बस यही सद्विचार "रामसेतु" के निर्माण में कारण बना। हमें भी बस यही करना है जो राम है वे धर्म के रक्षक हैं । राम उपाधि है ज्ञान की। हम धरती पर रहने वाले राम नामधारी या कहना चाहिए राम प्रतिभाधारी पुरुषों की सहायता को खड़े हों। 

"बस काम हो जाना है 

श्रीविद्या को लाना है 

धरती पर स्वर्ग बनाना है।" 

सीता स्वयं श्री विद्या है और जननी है ज्ञान की। धरती को   पुण्यशाली  बनाने में इस विद्या का ही हाथ है। हमें बस इस श्री विद्या को ही सुरक्षा देना है । 

   "विद्या न होती ज्ञान की  

तो क्यों आती जानकी । 

ज्ञान की दुंदुभी न बजती

 यदि न होती जानकी।।"

इसलिए इस जानकी को समझो बस। मैं कहता  हूँ  कि ज्ञान सद विवेक का ही एक रूप है। इस सद विवेक को ही धारण करो अपने मन में । बहुत  दंड पा लिया इस प्रकृति का । धनुष्कोटि यह सूचना देता है हमें  कि हम स्थिर मन वाले बन जाएं। यह स्थान आज भी इस बात का संकेत है कि जल  का अथाह पारावार आसपास होते हुए भी यह स्थान आज भी सुस्थिर बना हुआ है। कोई हलचल नहीं, समुद्र के रत्न वहीं की वहीँ रुके हैं कोई क्रिया नहीं । 

यही ज्ञान की स्थिति है । जब भगवत चिंतन में साधक लीन होता है तो अपना सब कुछ भूल जाता है । बस यही ज्ञान की स्थिति हमें अध्यात्म की ओर ले जाती है। अध्यात्म में ऐसे ही नहीं बनता है । अध्यात्म समय है बस । इस समय को पहचान लो तो तुम्हारा काम बना रखा है। ज्ञानगंज को न देखो, देखो अपनी आत्मा को, यह आत्मा ही ज्ञानगंज है । सबसे पहले हमें अपने को ज्ञानगंज बनाना है । मैंने पहले ही कहा था कि ज्ञान गंज उनके लिए है जो अध्यात्म में पक चुके हैं । इसलिए न देखो स्थान को ,स्थान तुम स्वयं हो । राम ने कहा न माना बार-बार प्रार्थना करने पर भी समुद्र  ने   रास्ता न दिया आखिर में धनुष उठाना पड़ा । अब इस धनुष को ही प्रणाम करना है । यह धनुष राम का नहीं, यह अब इंद्र का धनुष है। इसको झुकना है समय आया है झुकने का। नहीं तो आखिर में मरना है । नवा न था,न  झुका था समुद्र भी। 

"विनय न मानत जलधि जड़,

 गए तीन दिन बीत । 

बोले राम सकोप तब,

 भय बिन होय न प्रीत। "

आखिर में झुकना आवश्यक है । पर क्रोध क्रोध है और यह क्रोध ही विनाश का कारण है । शांति को स्थापित करने के लिए ही  यह सब कुछ  हैं।   समझो ज्ञान को और और दबाओ अपने बेईमान को। यह मन बेईमान हो चला है इसे ही दबाना है। हम अपने अधिकार से अधिक पाने की इच्छा रखते हैं ,यही  हमारे अंदर बेईमानी है। समुद्र ने भी यही सोचा आखिर झुकना पड़ा प्रभु के दंड के सामने । अब न झुके तो कभी न रुके । बस बस इतना ही कहना है। मेरा प्रणाम स्वीकार करना है । 

जय जय महान। 

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