हिन्दुस्तान वार्ता।
अवतारवाद की कल्पना का क्या ? अवतार क्या किसी के जिम्मे है कि घोषणा के हिसाब से ही करे। यह तो प्रकृति की जरूरत है । प्रकृति चाहे तो उससे क्या नहीं करा सकती ? यह तो वक्त की जरूरत है। समझ आया कुछ और कुछ हो गया। अभी कुछ नहीं बदला , अभी तो बदलना है बाकी। जिस सोच को लेकर मनुष्य जी रहा है उसमें परिवर्तन लाना होगा , वक्त की पुकार है।
"ज्ञानगंज" कोई दूसरी जगह नहीं, आत्मा का बल ही ज्ञानगंज है। यह बनाया जाता है स्थान बस प्रकृति की सुरक्षा के लिए । न जाने कितनी दिव्य आत्माएं आपके सवालों का नहीं, बस जवाब और जवाब का ही रूप ये स्थान हैं ,जवाब यानि व्यवस्था का ही स्वरूप हैं। मनुष्य को जवाब चाहिए और कुछ नहीं करना।कुछ नहीं , खाली बकना।
अरे !:प्रकृति को बचाना है तो उसे किताबों के पन्ने नहीं पलटने। उसे तो बस आवश्यकता को देखना है। कहा था कि "कल्कि अवतार " कलियुग के अंत में होगा । पर क्या पता था कि प्रकृति का बेड़ा गर्क इस तरह होगा।
वक्त की मार को झेल रहा मनुष्य अपनी सोच में डूबा है । उसने नहीं देखा है कि क्या से क्या हो रहा है? असमय वृक्ष फल दे रहे हैं । कन्याएं समय से पहले माँ बन रही हैं, मूर्तियों में से पसीना टपक रहा है । यह सब क्या है ? इसी को तो प्रकृति का प्रकोप कहा गया है। शेर के हाथी पैदा हो सकता है क्या ? पर सब हो रहा है । इसे या तो प्रकृति का बैलेंस बिगड़ना कहें या प्रकृति का कोप । मनुष्य इन बातों को नहीं समझता। मनुष्य ने विज्ञान पढ़ा है, लेकिन अध्यात्म की शिक्षा उसने शून्य के बराबर भी नहीं ग्रहण की है। उसे मालूम ही नहीं है अध्यात्म क्या है ? जो अध्यात्म के बारे में पहली कक्षा क्या ,शून्य बराबर भी जानकारी नहीं रखता हो तो उसे पूछने का हक ही नहीं बनता। इसलिए अध्यात्म को समझने की जरूरत है और जरूरत है इस बात की कि बड़ों की सुनें।
अनुभव का नाम ही गुरु होता है। जिन्होंने अध्यात्म के अनुभव प्राप्त किए हैं वे ही बड़े हैं। इसलिए आध्यात्मिक शिक्षा किताबों में नहीं मिलती । आत्मा का विषय यह ज्ञान पुराणों में भी नहीं , इसे तो इसे बस आरण्यक और उपनिषदों में ही खोजना पड़ता है । पुराण तो किस्सा कहानी हैं अज्ञानियों को समझाने के लिए। अज्ञानता क्या ,अज्ञानता तो सिर चढ़कर बोल रही है। ज्ञानियों की धज्जी उड़ाने चली है। अरे ज्ञानी तो ज्ञानी है। तप से विवेक पैदा होता है । जो तपा नहीं क्या जानेगा ? इसलिए पहल तपो और फिर पूछो। जिसने तपना सीखा है ,उसने ही तप जाना है और तपे बिना कोई भी ज्ञान नहीं मिलता ।
वैष्णवी , ऐन्द्री ,ब्राह्मी ,रौद्री ,वायवी आदि अट्ठारह प्रकार की शांतियाँ बतायी हैं। ये संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली शांति विधियाँ हैं।
अतिवृष्टि , अनावृष्टि से उत्पन्न भूस्खलन ,भूकंप , पूजनीय देवताओं की मूर्तियों में कंपन होना , उनका अचानक नाचना , रोना ,प्रज्ज्वलित होना ,पसीना आना , बिना अग्नि के किसी स्थान पर प्रकाश होना ये सब लक्षण राष्ट्र को पीड़ित करने वाले हैं। समय से पहले ही वृक्ष पर फल लगें, अतिवृष्टि ,अनावृष्टि कुसमय लगातार तीन दिन से अधिक वर्षा हो नदी या सरोवर एक ग्राम से बहकर दूसरे गांव में मिलें या जलाशयों में पलने वाले जीव सहसा अगणित संख्या में मरें, स्त्रियां असमय में कुंवारी ही प्रसव करें , प्रसव प्रकारांतर का हो या एक से अधिक को एक साथ जन्म दें, उल्टा प्रसव हो, अधिक अंग वाला या विकृत यानि न पशु ही हो न मनुष्य ही ऐसा प्रतीत हो तो ये विलक्षण बातें कुल ग्राम व राष्ट्र को हानिप्रद बताए हैं।
गाय,हथिनी ,भैंस एक साथ दो बच्चे जन्म दें अथवा विजाति रूप में घोड़ा, बछड़ा, ऊंट को जन्म दें या किसी भी तरह की विकृत संतान को जन्म दें, शत्रुकृत कुचक्र भय हो,उल्कापात हो ,पुच्छल तारा ,धूमकेतु उदय हो ,आकाश में भेरी बजे ,वन्यजीव गांव में घुस आएं, थल में जल दिखाई पड़े, प्रदोष काल में कुक्कुट बोलें, दिन में गीदड़ रोएं, घर में कबूतर और उल्लू का प्रवेश हो ,उल्लू रोएँ, कौवा, कबूतर , उल्लू आदि सिर पर बैठे या स्पर्श करें या अचानक राजमहल की ध्वजा गिरे, कूएं सूख जाएं , चंद्र सूर्य में छिद्र दिखाई पड़े इनकी शांति "पिप्पलादि गण" से होती है।
अथर्ववेद के मंत्रों को ऋचा कहा गया है । ऋचाओं का समुदाय सूक्त हैं । विविध कार्यों के लिए विविध सूक्तों का समुदाय "गण" के नाम से जाना जाता है। कार्य काल के अनुसार उपचार सामग्री का और क्रिया का भेद हो जाता है । पर वे ही ऋचाएं या गण अनेक तरह के कार्यों में अलग-अलग विनियोग के अनुसार प्रयुक्त होती हैं। समस्त कार्यों में शांति वृक्षों की हरी शाखाएं, शांति औषधियां ,अनेक नदी नद, सरोवर ,स्रोतों के पावन जल, पावन मिट्टियां, यज्ञभष्मे, पुष्प आदि उपयोग में आते हैं । शांति जल घट को पूर्ण कर सभी कर्मों का विधान किया जाता है। समस्त शांति कार्यों का विधान सव्य होकर उत्तर पूर्व अभिमुख होकर बैठा जाता है । इन्हीं दिशाओं की टहानियाँ इन्हीं दिशाओं के लाए जल और जातवेदा अग्नि का प्रयोग होता है। समस्त गृह, गांव ,नगर , राष्ट्र आदि की रक्षा रक्षोहण अनुवाक से होती है।
शत्रुकृत बाधाओं को से दूर करने के लिए, तथा विभिन्न प्रकार के आदि व्याधियों की शांति अम्बादि गण, अभयगण और अपराजित गणों से की जाती है । ये सब विधान अथर्ववेद के अंतर्गत हैं । विधियों का ज्ञान साधारण नहीं । "पुरोहित "शब्द बहुत बड़े अर्थ में प्रयुक्त है । पुरोहित शब्द का अर्थ है -नगर की रक्षा करने वाला,देश की रक्षा करने वाला ,इस शरीर की रक्षा करने वाला। पुरी शरीर को भी कहते हैं और पुरी नाम देश या राज्य का भी है और पुरी इस संपूर्ण ब्रह्मांड को भी कहते हैं । "पुरी शेते इति पुरुष:" इनमें निवास कर रहा है शरीरों में भी। उसी को पुरुष कहा गया है । यह पुरुष शब्द महद ज्ञान परब्रह्म का वाची है। जो ईश्वर के उपासक हैं ब्रह्म का ज्ञान रखते हैं वही इस विधि को जानने का हक रखते हैं । संकट से ज्ञान ही बचा सकता है। इसलिए ज्ञान ज्ञान ज्ञान की शरण में पहुंचें। महात्मा बुद्ध कहते हैं कि बुद्धि की शरण में पहुंचो । बुद्धि को प्राप्त मनुष्य ही बौद्धव्य ज्ञान का परिचायक है। बौद्धव्यता को प्राप्त का नाम ही बुद्ध है । इसलिए कहा गया "बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम (धर्मम) शरणम गच्छामि , संघम शरणम गच्छामि।"
तुम जान ही रहे हो कि ऐसी विकट परिस्थिति है राष्ट्र और विश्व में क्या भय नहीं है और यह भय है तो साधारण जनता उपाय की क्यों नहीं सोचती? ईश्वर पर प्रश्न करने की बजाय उसका भी तो कुछ हक है। प्रकृति में पला- बड़ा मनुष्य क्या ईश्वर के ही जिम्मे पैदा हुआ है। उसके भी तो कुछ ईश्वर के प्रति कर्तव्य हैं। सारे कर्तव्यों को सारे उसूलों को ताक पर रखकर क्या उसने प्रश्न करना ही सीखा है । अरे आत्मद्वेषक जरा आत्मान्वेषण की ओर एक बार तो जाओ । आपको अपने प्रश्नों का उत्तर मिल जायेगा । विज्ञान की किताबों को नहीं अध्यात्म को परखो , ढूंढो प्रश्नों के उत्तर अपनी आत्मा में या योगियों का उनकी बातों का विश्वास करो । अध्यात्म योग से पैदा होता है , तप से पैदा होता है जो तपा नहीं ,वह क्या उत्तर देगा। इसलिए तपना सीखो।
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२१ चैतन्य विहार, वृंदावन, मथुरा ।
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