ठाकुर श्री गरुड़ गोविंद जी महाराज मन्दिर:डॉ.विनोद शर्मा ,ज्योतिष एवं पराविद।





हिन्दुस्तान वार्ता।वृन्दावन 

गरुड़ गोविंद मंदिर वृन्दावन के निकट छटीकरा पर स्थित है । गरुड़ पर सवार स्वयं श्री विष्णु रूप श्री कृष्ण यहाँ विराजित हैं। भगवान शिव का भी  यहाँ मंदिर है जो स्वयं  यहाँ रक्षा में खड़े हैं । शिव शक्ति के प्रतीक हैं पर पार्वती के साथ यहाँ होना इस बात का प्रमाण है कि वे स्वयं नारायण विष्णु के साथ यहाँ जगत के पोषक बनकर प्रकट हुए हैं। यहाँ अनोखा संयोग है कि नारायण की मूर्ति स्वयं श्री कृष्ण ही नहीं, स्वयं शिव भी नारायण रूप में पधारे हैं विराजित हैं। अब कृष्ण लीला का रूप यह कि स्वयं सर्पों को  धारण करने वाले शिव की भी यहाँ कृपा है। 

 "सर्प नरभक्षी नहीं ,

नरों के पापों का भक्षक  है 

विषधर है यह  

विष को धारण करता है ।

इसलिए  विष रूप में

 जो पाप घनेरे हैं

का यह भक्षक है , 

इसलिए यह 

प्रभु का रक्षक है। 

सत्य को धारण करते शिव 

इसलिए शिवनारायण कहलाते हैं, नारायण का रूप धर 

स्वयं विष्णु के संग आते हैं । 

यहाँ विष्णु रूप स्वयं कृष्ण

 गरुड़ गोविंद कहकर विराजित  हैं,

 बने हैं प्राणों के रक्षक

  वे ही महादेव कहलाते हैं। 

 प्राणों की रक्षा के निमित्त

 रूप धरा शिव ने

 इसलिए  वे कालसर्प

 पूजा में शिव रूप बन जाते हैं। 

असल में यह स्थान काल सर्प दोष के निवारण के लिए महत्व का है। पर अध्यात्म में भगवान के इस स्वरूप को समझना भी आवश्यक है। 

"गरुड़" शब्द का अर्थ गुरुत्वमान प्राणों से है ।

" प्राण जब उद्वेलित होते हैं 

ईश्वर से मिलने को ,

तो वे गरुत्वमान होते हैं 

वेग का रूप धरते हैं।

 सब कुछ प्राण ही हैं 

बस  इनको संवारो तुम। "

भगवान विष्णु के वाहन "गरुड़ जी महाराज " स्वयं "श्री" के रूप हैं। 

"गरुड़ "  आखिर है क्या  ? इस शब्द की परिभाषा में जाना है। परिभाषा ऐसे ही नहीं बनती है। परिभाषा का स्वरूप स्वयं ईश्वर है। वह जैसा चाहता है शब्दों का रूप बनाता है। "शब्द ब्रह्म" की उपासना ध्येय न अधूरा है पूरा ही पूरा है । इसलिए इस शब्द  को कोई पहचान न सका। ज्ञान की परिभाषा नहीं ज्ञान तो ज्ञान ही होता है। इसलिए पौरुष के अर्थ में  इस ज्ञान को समझना है। इसलिए तो कहा गया  गरुड़। इस  गरुड़ अर्थ में भारी भेद छिपा है। 

 "प्राण" शब्द की व्याख्या स्वयं "श्री " में समाहित है श्री के अर्थ में जितने भी पर्याय हैं वे सब इस श्री ही पूर्णता दिलाने में लगे हैं । आखिर श्री क्या है ,यही बताने का प्रयास यहाँ इस लेख में है। श्री स्वयं शक्ति है भगवान की जो किसी न किसी रूप में चाहें वह कार्य की शक्ति हो या ज्ञान की या पराबोध  की सब सब शक्तियाँ  स्वयं ईश्वर में समाहित हैं ,उनसे अलग नहीं। फिर यह गरुड़ क्या है ? गरुड़ स्वयं ईश्वर का मन है, जो ईश्वर को ले जाता है । मन रूप में स्थित यह गरुड़ ही स्वयं ईश्वर का मन कहलाता है । पराबोध या ज्ञान स्वयं स्वयं ईश्वर रूप है । 

ज्ञान को ईश्वर से अलग देखना संभव ही नहीं है। जितने भी ज्ञान हैं सभी ईश्वर रूप हैं।इसलिए इस ज्ञान को न  परखो यह सब ईश्वर ही है जो गरुड़ के रूप में  पूजित है स्वीकृत है। इसलिए इसके अर्थ में इसको भजना मुख्य है। 

 ईश्वर का आदेश नहीं यह मन रूप है। प्राण तत्व का विकास इतना  कि मन और प्राण का अभेद हो वह स्थिति स्वयं साधना का रूप होती है । जुड़ जाते प्राण स्वयं काम करने को । यह स्थिति और कुछ नहीं  "महाज्ञान "का रूप होती है। ज्ञान है दिवाकर है और यह प्रभाकर है दिशा है स्वयं यह दिशा का रूप होती है न कहना पड़ता कि किधर जाना है यह  गरुड़ स्वयं ज्ञान का रूप होता है जो स्वयं योगी है उसको दिखाना क्या और पैमाना क्या ज्ञान का रूप है वह भगवान की शक्ति है।

यह मन की शक्ति ही जब ईश्वर से जुड़ती है तो योग रूप होकर के भगवान की  होती है। 

 दशा है यह श्याम सुंदर की 

जो विष्णु कहलाते हैं  , 

राम का रूप धरते  हैं 

पृथ्वी पर भी आते हैं । 

न भेद है कुछ राम में 

और  श्याम में , 

सब कुछ है वह 

जो प्राण का रूप होती है । 

राम की शक्ति है यह 

कृष्ण की शक्ति है , 

पर है सब उस 

परमेश्वर की शक्ति है। 

 मिलता है उसे जो

 उसको भजता है , 

भक्त प्रहलाद भी है वह

 सीताराम  भी है । 

अब न पूछो किसी से

 कि वाहन कहलाता है , 

वह तो मन का रूप होता है 

ईश्वर का रूप होता है । 

चलता है उधर मनमाफिक ही

 मन का रूप है ईश्वर रूप  है। मानसिक रथ है 

रथ है सवारी है  , 

ज्ञान का रथ है यह

योगी की सवारी है । 

योगी को जाना नहीं पड़ता

 जाता है उसका मन ही 

जाकर लौट आता है । 

इसलिए इस गरुड़ को न पूछो 

यह मन है तुम्हारा ही, 

ईश्वर रूप है यह

 तुम्हारा ही तुम्हारा ही। 

इतिहास रूप में कुछ भी कहें पर ईश्वर का ज्ञान अलग है। परिभाषाएं कुछ भी कहें पर जिस ज्ञान को हम ईश्वर कहते हैं वह स्वयं में अनोखा है। न समझ पाया कोई उस ईश्वर को। 

इसलिए उस ईश्वर के इर्द- गिर्द जो भी वाक्य ज्ञान  रूप में इतिहास की संपदा बनते हैं या  पुराण और  स्वयं उपनिषद सब सब उस वेद सम्मत ज्ञान को आगे बढ़ाने में लगे हैं । पर ज्ञान रूप तो स्वयं ईश्वर है वेद तो उसको बताने की लिये हैं । 

अब इस वेद को न समझो...

 समझो ईश्वर को ही । क्योंकि वेद स्वयं ईश्वर का ज्ञान है । आत्मा से निकला यह ज्ञान ही वेद के रूप में प्रकट हुआ है ।  वेद आत्मा से अलग  नहीं, अब बात को समझो या ईश्वर को एक ही बात है । परावाणी के रूप में जो भी  ये ज्ञान धरती पर आते हैं वे सब ईश्वर रूप ही होते हैं। इसलिए परावाणी के रूप में यह लेख स्वयं इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर की संज्ञा को प्राप्त जो भी कुछ है चाहें वह सवार अथवा ईश्वर का रथ या और कुछ ,सब ईश्वर ही हैं। भगवान के शस्त्र शंख, चक्र ,गदा, पदम सब सब सब ईश्वर रूप हैं। इन्हें समझने में ही भलाई है । समझने से  मतलब ईश्वर का अंश या शक्ति

जिसका ज्ञान स्वयं साधना रूप में होता  है। ज्ञान साधना से भिन्न नहीं, साधना रूप ही  होता है।  इसे आत्मा का विज्ञान कहते हैं । ईश्वर की सारी बातों को ज्ञानी या योगी ही समझता है ,बाकी तो सब कुछ समझने समझाने का ही सिलसिला है जो कभी न पूरा होता है । लेख तो दिग्दर्शन मात्र है पर साधना बिना कुछ नहीं। स्थान का अपना महत्व होता है । अब इस स्थान के महत्व के बारे में-

इस स्थान का महत्व इसलिए कि यहाँ प्रत्येक वर्ष नाग पंचमी को कालसर्प की पूजा होती है भारी संख्या में यहाँ विद्वान ब्राह्मणों के द्वारा पीड़ित इन लोगों को पूजा हवन के माध्यमिक से लाभान्वित किया जाता है । यहाँ एक बहुत बड़ा तालाब भी है और शिव का मंदिर है शिव के सानिध्य में कालसर्प की पूजा का विधान बताया है  "त्रयं बकेश्वर" ही नहीं इस स्थान का भी प्रमाण है। इस संबंध में यह कितना प्रमाणित है स्वयं अपनी प्रतिभा के बल पर स्वयं गरुड़ जी महाराज से मेरी चर्चा इस प्रकार  कि मेरा प्रश्न और उनका उत्तर-

"गरुड़ की सवारी हो तुम 

गरुड़ सवार तुम्हारा है , 

तुम किस देश के वासी हो 

जो वृंदावन संभाला है  । 

किया उपकार है जग पर

 तुम पतित पावन हो, 

 करते कल्याण सबका ही 

तुम कलिमल हारन हो। 

दिया है दीप रघुवर ने 

तुम खेवनहार बन गए हो , 

सर्प विष मुक्ति के तुम ही

 अब यहाँ त्र।ता बन गए हो। 

आते  यहाँ जो भी 

इस पीड़ा को लेकर ,

आप  तत्क्षण देते हो 

उसे इस पीड़ा से मुक्ति । 

अब तुम हरो मेरा 

सबऔर सब ही  , 

न रहे दुखी जग में

 तुम विषधर रक्षक भी 

हो जो करते मुक्ति 

विषधरों को तुम । 

इसलिए तुम गरुड़ कहलाते हो 

तुम प्रभु के ही रूप हो

 स्वयं तुम ही विष्णु कहलाते हो , 

तुम ही यहाँ इस रूप में ही  गरुड़ गोविंद कहलाते हो।

 अब गरुड़ जी से प्रश्न  भगवान शिब का कि कहाँ, क्या और किस देश के वासी हो इसका जवाब स्वयं दे रहे हैं-

"मैं स्वयं यहाँ रहता 

एहसान तुम्हारा हूँ  , 

मानता  हूँ मैं तुम्हें ,

वृंदावन वासी हूँ। 

 दिया है वरदान कि तुमने 

विष को हरने ने का। 

अब  विष रक्षणक नहीं 

भक्षक बन गया  हूँ।

तुम  शिव हो 

शिव का रूप रखते हो, 

करते हो कृपा सब पर 

मेरा रूप भी तुम हो ।

मैं तुमसे कहता हूँ 

बस कृपा करो इतनी , 

अब मुझे भी कुछ

 आज्ञा दो इतनी। 

कि सेवा धर्म से मेरा

 न विलग होबे बस 

करता रहूँ सेवा  

और काम सब होबे। 

राधा की शक्ति को तुम

 याद अब रखना , 

प्रभु नाम है उसका 

बस निरंतर निरंतर ही।

गुणगान करती है 

उसकी जिह्वा बस , 

नाम ही भजती 

श्री राम जपती है। "

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