तुमने क्या दिया प्रकृति को। डॉ.विनोद शर्मा, ज्योतिष एवं पराविद।

 


 हिन्दुस्तान वार्ता।

जीव को न्याय पाने का हक परमात्मा ने न दिया है । जीव तो जीव ही है जब तक वह परमात्मा को प्राप्त न कर ले । इसलिए जीव से अलग ईश्वर की संज्ञा वाला मनुष्य इस जगत में किसी का भी भला कर सकता है। पर ईश्वर की उपाधि को प्राप्त धरती पर कितने मनुष्य हैं? यह बात सोचने की है। हर जीव (मनुष्य )बस यही सोच रहा है कि मैं मैं तो ईश्वर का दास हूँ मेरा भला तो ईश्वर करेगा । अरे मूर्ख ! जरा इस बुद्धि पर जोर डालो। तुमने उस परमेश्वर की प्रकृति को इतना तोड़- मरोड़ डाला है कि उठकर खड़े होने में वह डकरा रही है। फिर भी तू चाह रहा है कि तुझे बचा ले। अब ईश्वर क्या ईश्वर का पिता भी तुझे नहीं बचाएगा। 

परमेश्वर तो एक है पर  जिन्हें तू ईश्वर कह रहा है वह कितने हैं? अब उन्हें ही अपनी जान पर पड़ी है तो तुझे क्यों बचाएंगे? अब प्रकृति तुझे खा डालेगी। तू निराला पैदा नहीं हुआ है। आज जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और तू अपने अधिकार को रो रहा है। तुझे अपने बीवी बच्चे केl सुख की पड़ी है । भाड़ में जाए बीवी बच्चे। बस तू अपने को बचा। अब राम का नाम भी तेरा भला नहीं करेगा। अब तो "जय जय महान

" ही कहना होगा। अरे दुनियाँ के कारिंदे तूने समझ क्या रखा है ?

जो अभी सुख भोग रहे हैं उनकी ओर न देख वे भी तेरी श्रेणी में आने वाले हैं। पर बुद्धि जब विनाशक रूप धारण कर लेती है तब वह किसी की नहीं मानता है । अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर गुरुओं की परीक्षा लेने चला है। मूर्ख जाग जा तेरी हठधर्मिता ने तुझे ही राख बनाने का सामान रच डाला।अरे विनम्र  हो जा उस प्रकृति के प्रति। तेरी माँ ने तुझे पाला दूध पिला कर बड़ा किया । आज तूने उस प्रकृति माँ के स्तन काट डाले हैं । अब दूध नहीं रहा उन स्तनों में ।अब खून बह रहा है। मूर्ख अज्ञानी तू निरा मूर्ख ही है। तुझे अब जीने का भी हक नहीं है । बचाले स्वयं को या प्रकृति को।

 इस जगत का अधिष्ठाता ईश्वर है, तू उस ईश्वर को भी नहीं जान सका। बस गाली ही बक रहा है। भाड़ में जाए तेरा अभिमान । रावण ने तो शायद बचा लिया अपने को अभिमान करके। पर तू तो रावण का भी बाप निकला कि अभिमान करके भी तूने मर्यादा को भी नहीं पकड़ा है । रावण तो शिव का भक्त था।उसने अपने दस सिर शिव को अर्पित किए थे तब वह रावण की संज्ञा को अख्तियार करने का साहस कर रहा था । तूने क्या अर्पित किया है उस ईश्वर को   ..? .परमेश्वर तो बहुत बड़ी बात है।

अब तू जागेगा भी तो किसके बल पर। अब यह प्रकृति तुझे नहीं छोड़ेगी। बात इसकी नहीं रही कि जिसने पैदा किया है वह रक्षा करेगा । अब रक्षा क्या भाड़ में करेगा । जब तूने उसकी प्यारी प्रकृति को ही छील डाला । कोई पिता अपनी संतान को कब तक संतान समझे। अरे अज्ञानी मूर्ख तूने तूने अपनी माता को ही मार डाला पूरी तरह से,अपने पिता की पत्नी को। उसे सांस लेने में भी कठिनाई हो रही है । अब तू सोच रहा है कि तेरी पिता रक्षा करेगा । अरे पिता ईश्वर है उसे दान  देकर भी क्या खुश कर पाएगा? अब पूछ उस ईश्वर से कि उसके दिल पर क्या गुजर रही है। भाड़ में जाए उसकी पहरेदारी। तू पहरेदार भी नहीं रहा उसका । अब तो राम भज  श्याम भज। कुछ नहीं होने वाला। यह तीसरा दौर है यह तुझे न छोड़नl।  

 "शिव पर शीश चढ़ाऊँगा । 

तब रावण कहलाऊंगा । । "

"जो संपदा शिव रावणहि 

दीन दिए दिए दस माथ । 

सोई संपदा विभीषणहि 

 सकुचि  दीनि रघुनाथ । । "

अरे इस संपदा का क्या? यह संपदा किसी के हाथ नहीं रहती। यह स्वयं चंचल है। इसको संभालने के लिए ही लाखों साल तप करना पड़ता है। 

 प्रकृति तप से ही गुजरती है तो पुरुष को प्राप्त करती है और पुरुष भी उस प्रकृति को तप करके ही प्राप्त करता है। सीता  हो या राम सब ने तप किया तभी मिला। अब सब  प्रकृति ही है चाहे वह पार्वती हो या तुम्हारी राधा सब सब एक दूसरे से जुड़े हैं । पार्वती ने तप किया अपर्णा नाम से स्वयं को पहचाना तब जाकर शिव को मिली। धनुषयज्ञ में धनुष से ही सब कुछ न था । धनुष का ज्ञान भी जरूरी था। रावण न कर पाया कुछ प्रत्यंचा को चढ़ाना था। पर सीता ने तो पहले से ही राम को चुना पुष्प वाटिका में पुष्प चयन किया पर उन्हें क्या पता था कि ये राम ही हैं। नजर मिली पार्वती ने संकेत से बताया और कहा कि 

"मन जाहि राचो मिलहि सो वर  सहज सुंदर सांवरो।

 करुणानिधान सुजान  शील सनेहू  जानत रावरो। 

एहि भाँति गौरि अशीष सुनि सीय साहित हिय हर्षित अली। 

तुलसी   भवानी पूजि   पुनि  पुनि मुदित मन मंदिर चली । "

सीता को पार्वती का आशीर्वाद  फला और धनुष यज्ञ कारण बना। 

"जो न होती सीता राम की 

तो धनुष यज्ञ क्यों होता स्वयं । 

यह धनुष यज्ञ ही है परि पूरन और परब्रह्म स्वयं ।

अब पहचानो इस यज्ञ को

 धनुष यज्ञ क्यों होता स्वयं 

यह परीक्षा है राम की 

धनुष यज्ञ हो जाता स्वयं । 

यदि सीता स्वयंवर को राम न आते स्वयं । '

यह तो प्रभु की कृपा बस समझ लो तुम राम को स्वयं । 

इसलिए इस प्रकृति को पहचानो यह जिसे वरुण करती  है उसे परिपूर्ण बना डालती है। तुमने प्रकृति को ललकारा है इसलिए दंड तो तुम्हें ही भुगतना है। तुम रावण नहीं रावण की बात निकली है।अब तुमको कौन संभाले।

 परीक्षा तो सत्य की होती है असत्य तो स्वयं परीक्षित है सोना असली है या नकली नकली होने पर उसे एक बार कसौटी पर कसकर फेंक दिया जाता है पीतल या तांबे के बर्तनों में ।

पर असली सोना बार-बार परीक्षा में आता है । 

काटकर पीटकर  तपाकर उसे बार-बार परखा जाता है। 

इसलिए काटकर पीटकर  तपाकर परीक्षा जो होती सोने की। 

इसी तरह त्याग शील गुणधर्म से परखा जाता मनुष्य भी।।

मनुष्य ईश्वर बन सकता है यदि वह चाहे तो । पर परीक्षा से उसे गुजरना ही पड़ेगा यह बात निश्चित है । इसलिए सोच लो कि पाना है तो खोना होगा, चैन आराम । 

इसलिए तपाओ इस मन को। इस मन से ही सब कुछ मिलता है । 

जय जय महान।  

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