एक कटु सच्चाई : प्रेरक व्यंग्य।✍️ इंजी. आर.के.सिन्हा 'रंजन'

 

प्रेरक व्यंग :-

मैं शांति से बैठा अपना इंटरनेट चला रहा था...

तभी कुछ मच्छरों ने आकर मेरा खून चूसना शुरू कर दिया तो स्वाभाविक प्रतिक्रिया में मेरा हाथ उठा और चटाक हो गया..

और एक-दो मच्छर ढेर हो गए... फिर क्या था उन्होंने शोर मचाना शुरू कर दिया कि, मैं असहिष्णु हो गया हूँ..

मैंने पूछा.., "इसमें असहिष्णुता की क्या बात है..?"

वो कहने लगे.., "खून चूसना उनकी आज़ादी है.."

बस "आज़ादी" शब्द सुनते ही कईं बुद्धिजीवी उनके पक्ष में उतर आये और बहस करने लगे.. इसके बाद नारेबाजी शुरू हो गयी..

तुम कितने मच्छर मारोगे..

हर घर से मच्छर निकलेगा.."

बुद्धिजीवियों ने अख़बार में तपते तर्कों के साथ बड़े-बड़े लेख लिखना शुरू कर दिया।

उनका कहना था कि ..,मच्छर देह पर मौज़ूद तो थे लेकिन खून चूस रहे थे ये कहाँ सिद्ध हुआ है ..

और अगर चूस भी रहे थे तो भी ये गलत तो हो सकता है लेकिन *देहद्रोह'* की श्रेणी में नहीं आता...।

क्योंकि ये "मच्छर" बहुत ही प्रगतिशील रहे है..किसी की भी देह पर बैठ जाना इनका 'सरोकार' रहा है।

मैंने कहा.., "मैं अपना खून नहीं चूसने दूंगा बस।"

तो कहने लगे.., "ये "एक्सट्रीम देहप्रेम" है... तुम कट्टरपंथी हो, डिबेट से भाग रहे हो।"

मैंने कहा..., "तुम्हारा उदारवाद तुम्हें मेरा खून चूसने की इज़ाज़त नहीं दे सकता।"

इस पर उनका तर्क़ था कि भले ही यह गलत हो लेकिन फिर भी थोड़ा खून चूसने से तुम्हारी मौत तो नहीं हो जाती, लेकिन तुमने मासूम मच्छरों की ज़िन्दगी छीन ली..

"फेयर ट्रायल"* का मौका भी नहीं दिया।

इतने में ही कुछ राजनेता भी आ गए और वो उन मच्छरों को अपने बगीचे की 'बहार' का बेटा बताने लगे.. 

हालात से हैरान और परेशान होकर मैंने कहा कि लेकिन ऐसे ही..

मच्छरों को खून चूसने देने से मलेरिया हो जाता है,

और तुरंत न सही बाद में बीमार और कमज़ोर होकर मौत हो जाती है..।

इस पर वो कहने लगे कि.. तुम्हारे पास तर्क़ नहीं हैं इसलिए तुम भविष्य की कल्पनाओं के आधार पर अपने *फासीवादी* फैसले को सही ठहरा रहे हो...

मैंने कहा, "ये साइंटिफिक तथ्य है कि मच्छरों के काटने से मलेरिया होता है... मुझे इससे पहले अतीत में भी ये झेलना पड़ा है.. साइंटिफिक शब्द उन्हें समझ नहीं आया..।

तथ्य के जवाब में वो कहने लगे कि.., मैं इतिहास को मच्छर समाज के प्रति अपनी घृणा का बहाना बना रहा हूँ.. जबकि मुझे वर्तमान में जीना चाहिए।

इतने हंगामें के बाद उन्होंने मेरे ही सिर माहौल बिगाड़ने का आरोप भी मढ़ दिया।

मेरे ख़िलाफ़ मेरे कान में घुसकर सारे मच्छर भिन्नाने लगे कि..." हम लेके रहेंगे आज़ादी..."

मैं बहस और विवाद में पड़कर परेशान हो गया था... उससे ज़्यादा जितना कि खून चूसे जाने पर हुआ।

आख़िरकार मुझे तुलसी बाबा याद आये.. "सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती"

और फिर मैंने *काला हिट स्प्रे* उठाया और पूरे घर में भीतर से बाहर तक, ऊपर से नीचे तक, बगीचे से नाले तक उनके हर सॉफिस्टिकेटेड और सीक्रेट ठिकाने पर दे मारा...।

एक बार तेजी से भिन्-भिन् हुई.. फिर सब शांत..

उसके बाद से.. 

न कोई बहस...

न कोई विवाद...

न कोई आज़ादी...

न कोई बर्बादी...

न कोई क्रांति...

न कोई सरोकार...

अब सब कुछ ठीक है.. बस यही दुनिया की रीत है।

 यह लेख पूर्णतः काल्पनिक नही है.. और इसका संबंध वर्तमान परिस्तिथि से शतप्रतिशत है।

 इंजी.आर के सिन्हा 'रंजन'

 पूर्व महा प्रबंधक, कोल इंडिया। 

  मो. 84778 77770