हिन्दुस्तान वार्ता।✍️ डॉ.प्रमोद कुमार
भारत एक प्राचीन सभ्यता है जिसकी विविधता उसकी सबसे बड़ी पहचान रही है। परंतु यही विविधता, जातीय भेदभाव और सामाजिक ऊँच-नीच में तब्दील होकर, उसके एकता के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करती रही है। जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को कई खांचों में बाँट दिया, जहाँ जन्म ही व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का निर्धारण करता रहा। ऐसे समय में, बौद्ध धम्म एक क्रांतिकारी विचारधारा के रूप में उभरा, जिसने न केवल आत्मज्ञान और करुणा का मार्ग दिखाया, बल्कि जातिविहीन, समानतावादी समाज के निर्माण की भी आधारशिला रखी। बौद्ध धम्म, जिसे स्वयं तथागत गौतम बुद्ध ने प्रतिपादित किया, केवल आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग नहीं था, अपितु यह सामाजिक मुक्ति का भी पथ था। इस लेख में हम विस्तारपूर्वक विश्लेषण करेंगे कि किस प्रकार बौद्ध धम्म ने जातीय विखंडन को चुनौती दी, और यह कैसे विकसित व अखंड भारत के निर्माण का आधार बन सकता है।
1. भारत में जाति व्यवस्था की पृष्ठभूमि
जाति व्यवस्था भारत की सामाजिक संरचना का वह पहलू है जिसने हजारों वर्षों तक समाज के एक बड़े हिस्से को उत्पीड़न और असमानता में जकड़े रखा। यह व्यवस्था कर्म पर नहीं, जन्म पर आधारित थी, जिसने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अंततः 'अवर्ण' कहे जाने वाले दलित वर्गों को जन्म दिया। शूद्रों और दलितों को शिक्षा, मंदिर प्रवेश, और सार्वजनिक संसाधनों से वंचित रखा गया। इस व्यवस्था ने न केवल सामाजिक, बल्कि मानसिक गुलामी को भी जन्म दिया, जहाँ एक पूरी जाति को अपने ही देश में पराया बना दिया गया।
2. बौद्ध धम्म की उत्पत्ति: एक सामाजिक क्रांति
गौतम बुद्ध का जन्म एक क्षत्रिय कुल में हुआ, परंतु उन्होंने अपने कुल, जाति और वर्ग की सीमाओं को लांघकर सत्य की खोज की। उन्होंने कठोर तप, ध्यान और आत्मविज्ञान के माध्यम से जो बोध प्राप्त किया, वह केवल आध्यात्मिक ज्ञान नहीं था, बल्कि सामाजिक चेतना का प्रकाश भी था। बुद्ध ने जातिवाद को सिरे से नकारते हुए कहा — “न जात्या ब्राह्मणो होति, न जात्या होति अब्राह्मणो।” (अर्थात जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता, न ही कोई नीच; कर्म ही व्यक्ति को महान या तुच्छ बनाता है।) बुद्ध का यह कथन उस समय के ब्राह्मणवादी व्यवस्था के लिए एक सीधी चुनौती थी।
3. संघ की संरचना: जातिविहीन समुदाय
बुद्ध ने जब अपने अनुयायियों के लिए संघ (संगठन) की स्थापना की, तो उसमें जाति, लिंग, क्षेत्र और पेशा — किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रखा गया। संघ में चांडाल से लेकर राजा तक, सभी समान माने जाते थे। उदाहरण के लिए: उपालि — जो एक नाई जाति से थे, उन्हें बुद्ध ने संघ में वरिष्ठता दी। आम्रपाली — एक नगरवधू थीं, परंतु बुद्ध ने उन्हें संघ में स्थान देकर सामाजिक समानता का नया दृष्टांत प्रस्तुत किया। यह संघ स्वयं में एक आदर्श समाज था — लोकतांत्रिक, समतावादी, और करुणामूलक।
4. अशोक का बौद्ध धम्म और अखंड भारत
सम्राट अशोक, जो कलिंग युद्ध के पश्चात बौद्ध धम्म की शरण में आए, उन्होंने इस विचारधारा को न केवल भारत में बल्कि एशिया के अन्य भागों में भी फैलाया। अशोक के शासन में: बौद्ध धम्म को राज्य की नीतियों में सम्मिलित किया गया। जातीय भेदभाव को कम करने के प्रयास किए गए। स्तंभ लेखों और धम्म यात्राओं के माध्यम से ‘धम्म’ का प्रचार किया गया। अशोक का भारत एक सांस्कृतिक अखंडता का प्रतीक था — जहाँ विविध भाषाएं, जातियां और समुदाय एक करुणामूलक शासन के अंतर्गत संगठित थे।
5. आधुनिक भारत में बौद्ध धम्म की पुनर्स्थापना: डॉ. आंबेडकर का योगदान
20वीं शताब्दी में जब जातीय उत्पीड़न चरम पर था, तब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने बौद्ध धम्म को एक सामाजिक आंदोलन के रूप में पुनः जीवित किया। उन्होंने कहा: “मैं हिंदू पैदा जरूर हुआ, लेकिन हिंदू मरूंगा नहीं।” 1956 में उन्होंने लाखों दलितों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया, और उसे 'नवयान बौद्ध धम्म' नाम दिया, जिसमें बुद्ध के मूल विचारों को सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और आत्म-सम्मान से जोड़ा गया।
6. बौद्ध धम्म के मूल तत्व: चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग
बौद्ध धम्म की नींव चार आर्य सत्यों (चार महान सत्यों) और अष्टांगिक मार्ग (आठ अंगों वाला मार्ग) पर आधारित है, जो न केवल आत्मकल्याण का साधन हैं, बल्कि सामाजिक समरसता और जाति विखंडन का भी मार्ग प्रशस्त करते हैं। चार आर्य सत्य:
1. दुःख — जीवन में दुःख है; जन्म, मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था आदि दुःख हैं।
2. दुःख समुदय — दुःख का कारण है — तृष्णा, लोभ, मोह आदि।
3. दुःख निरोध — दुःख का अंत संभव है।
4. दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा — वह मार्ग जो दुःख के अंत की ओर ले जाता है, वह अष्टांगिक मार्ग है।
अष्टांगिक मार्ग:
1. सम्यक दृष्टि
2. सम्यक संकल्प
3. सम्यक वाणी
4. सम्यक कर्म
5. सम्यक आजीविका
6. सम्यक प्रयास
7. सम्यक स्मृति
8. सम्यक समाधि
यह मार्ग किसी जाति, वर्ण, वर्ग या लिंग से संबंधित नहीं है। यह सार्वभौमिक है, जिसमें सभी के लिए समान मुक्ति और कल्याण निहित है।
7. बौद्ध धम्म और वर्तमान भारतीय समाज में जाति प्रश्न
आज भारत तकनीकी, आर्थिक और वैश्विक मंच पर प्रगति कर रहा है, परंतु जातीय भेदभाव अभी भी निचले स्तर पर व्याप्त है। पंचायतों, मंदिरों, विवाह, भोजन, आवास, शिक्षा और रोजगार में यह असमानता साफ देखी जा सकती है। ऐसे में बौद्ध धम्म का जाति-विरोधी, समतावादी और करुणामूलक दृष्टिकोण पुनः प्रासंगिक हो जाता है। यह केवल एक धार्मिक मार्ग नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार की शक्ति है।
बौद्ध धम्म:
आत्मगौरव की भावना देता है।
व्यक्तित्व विकास और सामाजिक चेतना को बढ़ावा देता है।
जातिगत उत्पीड़न से उबरने की वैकल्पिक राह दिखाता है।
8. शिक्षा, नारी मुक्ति और सामाजिक परिवर्तन में बौद्ध धम्म की भूमिका
(क) शिक्षा: बुद्ध ने कहा था — “ज्ञान ही मुक्ति का साधन है।” संघों में स्त्रियों और निम्न जातियों को शिक्षा की पूरी स्वतंत्रता थी। संघ ने ग्राम-स्तर पर विचार, ध्यान और संवाद की परंपरा विकसित की।
(ख) नारी मुक्ति: बुद्ध ने स्त्रियों के लिए भिक्षुणी संघ की स्थापना की। महाप्रजापती गौतमी, विशाखा, आम्रपाली जैसी नारियों ने बौद्ध धम्म के माध्यम से आत्मसम्मान प्राप्त किया।
(ग) सामाजिक परिवर्तन: बौद्ध विहार सामाजिक समरसता के केंद्र बने। वहाँ जाति, वर्ग या लिंग से परे सभी को ज्ञान, शरण और सेवा प्राप्त होती थी। यह आज भी सामाजिक सुधार के लिए मॉडल बन सकता है।
9. बौद्ध धम्म का वैश्विक प्रभाव और भारत में पुनर्प्रतिष्ठा
बौद्ध धम्म केवल भारत तक सीमित नहीं रहा। मौर्य सम्राट अशोक के समय में यह श्रीलंका, तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, म्यांमार, थाईलैंड और वियतनाम तक फैल गया। ये देश आज भी बौद्ध सिद्धांतों के आधार पर सामाजिक नीति बनाते हैं। भारत में इसकी पुनर्प्रतिष्ठा का श्रेय डॉ.आंबेडकर और नवबौद्ध आंदोलन को जाता है। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, बिहार, कर्नाटक आदि में आज लाखों लोग बौद्ध धम्म की शरण में हैं।
10. अखंड भारत के निर्माण हेतु बौद्ध धम्म का मार्गदर्शन
एक विकसित और अखंड भारत के निर्माण हेतु निम्नलिखित पहलुओं पर बौद्ध धम्म प्रेरणा देता है :
समता का सिद्धांत :
समाज में कोई भी व्यक्ति ऊँचा या नीचा नहीं; यह भावना एकता की नींव रखती है। करुणा और अहिंसा: वर्ग संघर्ष, हिंसा और उग्रता की जगह संवाद, समझ और सहानुभूति को स्थापित करता है।
लोककल्याणकारी शासन: अशोक जैसे शासकों के उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि बौद्ध धम्म नीतिगत रूप से भी समाज को न्यायसंगत दिशा दे सकता है।
आर्थिक समानता और त्याग की भावना: संग्रह, शोषण और लालच के विरुद्ध बौद्ध धम्म संतुलित और न्यायपूर्ण वितरण का मार्ग दिखाता है।
11. नवबौद्ध आंदोलन का विस्तार: जागरूकता से क्रांति तक
डॉ. आंबेडकर द्वारा 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर में आयोजित ऐतिहासिक दीक्षा समारोह केवल धर्म परिवर्तन की घटना नहीं थी, बल्कि एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत थी। उस दिन लाखों दलितों ने हिन्दू धर्म की जातिवादी व्यवस्था को त्यागकर बुद्ध, धम्म और संघ की शरण ली। इस घटना को ‘धम्म चक्र प्रवर्तन’ कहा गया।
नवबौद्ध आंदोलन की विशेषताएँ :
यह आंदोलन शोषितों को आत्मसम्मान और चेतना प्रदान करता है।
यह केवल धर्म-परिवर्तन नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुक्ति का साधन है।
नवबौद्ध आंदोलन ने भारत में बौद्ध धम्म को पुनर्जीवित किया और इसे सामाजिक न्याय का स्तंभ बनाया।
महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली और राजस्थान सहित कई राज्यों में नवबौद्ध समाज अपने अधिकारों, शिक्षा और सामाजिक संगठन के बल पर आगे बढ़ रहा है।
12. बौद्ध धम्म का ग्राम-स्तर पर प्रभाव और सामाजिक परिवर्तन
बौद्ध विहार न केवल धार्मिक स्थल हैं, बल्कि वे ग्राम स्तर पर सामाजिक केंद्रों का भी कार्य करते हैं। इन विहारों में:
सामाजिक न्याय, शिक्षा और स्वावलंबन की बात होती है।
जातिवाद के विरुद्ध विचार जागरूकता फैलाई जाती है।
भिक्षु समुदाय समाज के लिए सेवा, नैतिकता और संगठन का उदाहरण बनता है।
ग्रामों में बौद्ध धम्म अपनाने वाले परिवारों में आत्मविश्वास, अनुशासन और स्वाभिमान देखा जाता है। ये लोग अब अन्याय और दमन को सहने के बजाय, संगठित होकर प्रश्न उठाने लगे हैं।
13. जाति के विरुद्ध बौद्ध धम्म की क्रांतिकारी शिक्षाएं
बुद्ध ने जातिवाद को केवल खंडन नहीं किया, बल्कि उसके स्थान पर नैतिकता, समता और करुणा आधारित समाज की अवधारणा दी। उनके कुछ प्रमुख विचार:
जाति नहीं, कर्म प्रधान है।
वचन और व्यवहार की शुद्धता ही व्यक्ति की श्रेष्ठता का आधार है।
धम्म में कोई ऊँचा-नीचा नहीं, सभी समान हैं।
उन्होंने जाति आधारित हिंसा, सामाजिक बहिष्कार, अस्पृश्यता और अज्ञानता को जड़ से उखाड़ने की शिक्षा दी।
14. भारत के संविधान और बौद्ध धम्म के मूल्यों में साम्यता
डॉ.आंबेडकर ने संविधान की रचना बौद्ध दृष्टिकोण से ही की थी। भारत के संविधान में जो मूल्य दर्शाए गए हैं — जैसे :
न्याय (Justice)
स्वतंत्रता (Liberty)
समता (Equality)
बंधुता (Fraternity)
— ये सब बुद्ध के धम्म में पहले से निहित थे। इसीलिए आंबेडकर ने कहा था, "बुद्ध धर्म ही सच्चा लोकतंत्र है।" भारत का संविधान सामाजिक सुधार, समान नागरिक अधिकार और दलित उत्थान की दृष्टि से बौद्ध धम्म का संवैधानिक रूप है।
15. वर्तमान राजनीति और बौद्ध धम्म की प्रासंगिकता
वर्तमान समय में जब राजनीति जाति आधारित वोटबैंक में फंसी हुई है, बौद्ध धम्म निहित मानवतावाद और जनकल्याण के विचार लेकर एक वैकल्पिक राजनीतिक दिशा प्रदान कर सकता है।
बौद्ध धम्म के राजनीतिक मूल्यों में शामिल हैं:
अहिंसा और संवाद की राजनीति
नैतिक नेतृत्व
जनता की सेवा को सर्वोपरि रखना
राज्य का उद्देश्य लोककल्याण होना
यदि भारत में बौद्ध मूल्यों पर आधारित राजनीतिक संस्कृति विकसित की जाए, तो यह निश्चित रूप से एक विकसित और अखंड राष्ट्र निर्माण में सहायक होगी।
16. सामाजिक आंदोलन की रूपरेखा: बौद्ध धम्म आधारित भारत
यदि भारत को जातिविहीन, समतामूलक और अखंड राष्ट्र बनाना है, तो बौद्ध धम्म आधारित सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है, जिसमें शामिल हों:
शिक्षा आंदोलन: बुद्ध की दृष्टि से जागरूकता और ज्ञान पर आधारित शिक्षा का प्रसार।
सांस्कृतिक आंदोलन :
जाति-धारित परंपराओं की जगह करुणा और समता आधारित परंपराओं को स्थापित करना।
संगठन: गांव से लेकर शहर तक विहार आधारित सामाजिक संगठन बनाना।
धम्म-दिक्षा अभियान: लोगों को आत्मसम्मान और गरिमा का जीवन देने हेतु बौद्ध धम्म से जोड़ना।
यह आंदोलन केवल एक धर्म का प्रचार नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का स्वरूप होगा।
17. बौद्ध धम्म ही है जाति विखंडन और अखंड भारत की कुंजी
आज जब भारत आत्मनिर्भरता, डिजिटल प्रगति और वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है, तब उसे अपनी आंतरिक एकता और सामाजिक समरसता को भी मजबूत करना होगा। जाति, धर्म और वर्ग के नाम पर बढ़ती विभाजक प्रवृत्तियों को रोकने के लिए बौद्ध धम्म से बड़ा कोई साधन नहीं। यह व्यक्ति को आत्मचेतना देता है। यह समाज को समता, करुणा और संगठन प्रदान करता है। यह राष्ट्र को न्याय, बंधुत्व और अखंडता की दिशा में ले जाता है। बुद्ध का धम्म न आज का है, न केवल अतीत का — यह भारत के भविष्य का आधार है। "बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि" — ये केवल मंत्र नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक नवनिर्माण का घोष हैं।
18. निष्कर्ष :
19. समता, करुणा और प्रज्ञा से युक्त भारत की ओर
बौद्ध धम्म न तो केवल धार्मिक प्रणाली है, न ही केवल आध्यात्मिक अनुशासन। यह एक व्यापक सामाजिक दर्शन है जो जातीय विखंडन को समाप्त कर समतामूलक, करुणामय और ज्ञाननिष्ठ भारत का निर्माण कर सकता है। आज के समय में जब समाज जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर बंट रहा है, बौद्ध धम्म का समन्वयवादी दृष्टिकोण ही वह आधार बन सकता है जिससे हम विकसित और अखंड भारत की ओर बढ़ सकें। डॉ. आंबेडकर ने ठीक ही कहा था - "बुद्ध का धम्म व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाता है, समाज को समतामूलक बनाता है और राष्ट्र को अखंड बनाता है।"
लेखक - डॉ.भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा में डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov हैं।