हिन्दुस्तान वार्ता।✍️ शाश्वत तिवारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया हालिया संदेश – "अब सिर्फ पीओके पर ही बात होगी, आतंकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकती, ऑपरेशन सिंदूर सिर्फ स्थगित हुआ है, सेना को खुली छूट है" – न केवल भारत की सुरक्षा नीति में परिवर्तन का संकेत देता है, बल्कि दक्षिण एशिया में रणनीतिक संतुलन की नई दिशा भी दिखाता है।
कूटनीतिक अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर :
अब तक भारत की पाकिस्तान नीति अपेक्षाकृत संयमित, संवाद-प्रधान और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहानुभूति जुटाने वाली रही है। किंतु इस वक्तव्य के बाद यह साफ़ हो गया है कि भारत अब उस नीति को पीछे छोड़कर एक सक्रिय, निर्णायक और लक्ष्य-केंद्रित रुख अपना रहा है। ‘अब सिर्फ पीओके पर बात होगी’ – यह वाक्य न केवल भारत के भू-राजनीतिक दृष्टिकोण में परिवर्तन दर्शाता है, बल्कि पाकिस्तान के उस दावे को भी चुनौती देता है जिसमें वह जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र बताता रहा है।
आतंकवाद और बातचीत: एक असंगत युग्म :
प्रधानमंत्री द्वारा स्पष्ट रूप से यह कहा जाना कि ‘आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते’, भारत की लंबे समय से चली आ रही पीड़ा का सटीक और ठोस उत्तर है। बार-बार भारत द्वारा संवाद की पेशकश के बावजूद पाकिस्तान की जमीन से संचालित आतंकवाद ने हजारों निर्दोष लोगों की जान ली है। यह वक्तव्य उन सभी वैश्विक शक्तियों के लिए भी एक संदेश है जो ‘दोनों देशों को बातचीत के लिए प्रोत्साहित’ करने की नीति अपनाते हैं, परंतु जमीनी सच्चाइयों को नज़रअंदाज़ करते हैं।
ऑपरेशन सिंदूर : एक अस्थायी विराम,स्थायी संकल्प नहीं :
प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट किया कि ‘ऑपरेशन सिंदूर सिर्फ स्थगित हुआ है’, समाप्त नहीं। इसका मतलब यह है कि भारत की सैन्य तैयारियाँ न केवल सजग हैं, बल्कि भविष्य के किसी भी आवश्यक हस्तक्षेप के लिए तत्पर हैं। ‘सिंदूर’ जैसे ऑपरेशन के पीछे जिस रणनीतिक गहराई और सैन्य कौशल की आवश्यकता होती है, वह भारत की बढ़ती रक्षा-संभावनाओं और स्वदेशी सैन्य क्षमताओं का भी प्रमाण है।
सेना को खुली छूट : विश्वास और संकल्प का प्रतीक :
"सेना को खुली छूट है"- यह वक्तव्य केवल एक सैन्य रणनीति नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक सशक्तिकरण भी है। इससे यह प्रतीत होता है कि सरकार सेना पर पूर्ण विश्वास कर रही है और उसे आवश्यक निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जा रही है। सीमावर्ती क्षेत्रों में यह संकेत न केवल सशस्त्र बलों का मनोबल बढ़ाता है, बल्कि दुश्मन को भी यह चेतावनी देता है कि भारत अब रक्षात्मक नहीं, बल्कि प्रतिघाती मुद्रा में है।
वृहत्तर परिप्रेक्ष्य : शांति की ओर या संघर्ष की ?
हालांकि यह निर्णायकता प्रशंसनीय है, परंतु इसके दीर्घकालिक परिणामों पर भी विचार आवश्यक है। क्या यह रुख क्षेत्र में तनाव को बढ़ाएगा या अंततः शांति लाएगा? क्या पाकिस्तान इस दबाव में आकर वास्तविक कार्रवाई करेगा? या फिर यह रणनीति केवल सीमित समय के लिए असरकारी सिद्ध होगी?
भारत को न केवल सैन्य, बल्कि कूटनीतिक और मानवीय मोर्चे पर भी सक्रिय रहना होगा। क्योंकि किसी भी नीति की सफलता केवल युद्धभूमि में नहीं, बल्कि विश्व मंच पर उसकी स्वीकार्यता और समर्थन से भी तय होती है।
- लेखक भारत में वरिष्ठ पत्रकार हैं।